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तौ द्वावपि पितुः कृर्चकचाकर्षणशिक्षकम् । विशिष्टं प्रापतुबाल्यं क्रमेण क्षीरपायिणी ।। धात्रीभिर्लाल्यिमानौ तावपश्यत्परया मुदा। मुहुर्मुहुर्महीपाल : स्वदोर्दण्डा विवापरौ ।। संचरेतुः सदस्यानामंकादंकं महीभुजाम् ॥ तैषामड़गेषु वर्षन्तौ तौ स्पर्शेन सुधामिव ।। क्रमेण तो वर्धमानों नीलपीताम्बरौ सदा।
विजहतुः पादपातै : कम्पयन्तौ महीतलम् ॥ 28 इसी प्रकार लवणांकुश की बाल चेष्टाएँ भी वात्सल्य का सहज सृजन करती है
इतश्च तत्र वैदेही सुषुवे युग्मिनौ सुतौ। नामतोऽनंगलवणं मदनांकुशमप्यथ ॥ वज्रजंधस्तयोश्चक्रे जन्मनामहौत्सवौ। स्वपुत्रलाभादधिकं मोदमानो महामनाः ॥ छात्रीजनैलल्यिमानौ लीलादुर्ललिता वुभौ ॥ क्रमेण ववृधाते तावशिचिनाविव भूचरौ ॥ कलाग्रहणयोग्यौतावजायेतां महाभुजौ। कलभाविव शिक्षाी नरेन्द्र नयनोत्सवौ ॥ 29
आगे भी सिद्धार्थ मुनि से पुत्रों की प्रशंसा सुन सीता अति हर्षित हो उन्हें अध्ययनार्थ वहाँ रख लेती है।
भक्ति : हेमचंद्र की दृष्टि में "जिनपूजा" या जिनभक्ति सर्वोच्च रही। जब उनका उद्देश्य ही जैन धर्म के सिद्धांतों के अनुकूल राम कथा सृजन करना रहा तो फिर “जिन" भक्ति के लिए अपनी कृति में अवसरों की कमी क्यों रखते। इसीलिए हेमचंद्र ने लगभग अपने सभी पात्रों को जैन धर्म में दीक्षित किया। जैन रामायण में अनेक स्थानों पर जैन पूजा, चैत्यवंदन, जितेन्द्रदेव स्तुति आदि के माध्यम से भक्ति रस की व्यंजना हुई है। रावण, दशरथ, सीता, हनुमान एवं देवताओं आदि द्वारा अरिहंत पूजा, चैत्य महोत्सव आदि प्रसंग भक्तिरसयुक्त प्रस्तुत हुए हैं। उदारहणार्थ रावण द्वारा शांतिनाथ की स्तुति इस प्रकार की गई
देवाधिदेवाय जगत्तायिने परमात्मने। श्रीमते शांतिनाथाय षोडशायाऽर्हते नमः ॥ श्रीशांतिनाथभगवन् भवाऽम्भोनिधितारण ॥ सर्वार्थसिद्धमंत्राय त्वन्नाम्नेऽपि नमोनमः ॥ ये तवाऽष्टविद्यां पूजां कुर्वन्ति परमेश्वर। अष्टाऽपि सिद्धयस्तेषां करस्था अणिमादयः ॥
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