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केचिन्मतड़गजोद्वाāरपरे वाहवाहनै : । शार्दूलवाहयैरन्ये तु खरवायै रधै : परे । कुबेरवन्नरैः कैचिन्मैषै : केचित्तु वह्निवत् । यमवन्माहिषै : केचित्केचिद्रेवन्तवद्वै यैः ।। विमानैर्देववत्केचित्प्रयाः समरकर्मणे। उत्पत्य युगपद्वीशः परिवठुर्दशाननम् ॥" वीराः शीरांसि वीराणां छित्वा भूमौ प्रचिक्षिपु : ॥
बभुक्षिताय कीनाशायोचितान् कवलानिव ॥ इसी तरह नरक में परमधार्मिकों द्वारा संसारी जीवों की यातनाएं भी "वीभत्स" का सृजन करती हैं
नैवं वो युद्धमानानां दुखं भावीति वादिनः । परमाधार्मिका: कुद्धाः अग्नि कुंडेषु तान्ययधुः ॥ दह्यमानास्त्रोयोऽप्युच्चैरटन्तो गलितांगका :। ततः कृष्ट्वा तप्ततैलकुंभ्यां निद्धिरे बलात्। विलीनदेहास्तत्रापि भाष्ट्र चिक्षिपिरे चिरम्। तडत्तडिति शब्देन स्फुटन्तो दुद्रुवः पुनः ॥ 20
अद्भुत : जैन रामायण के अनेक प्रसंगों में "अद्भुत' की अभिव्यक्ति हुई है। जैन धर्म में यंत्रतंत्रादि एवं सिद्धियों पर विशेष बल रहा है। विद्याधरों के अनेक प्रसंग अद्भुत रस की सृष्टि करते हैं। मायावी युद्ध, माया द्वारा अनेक दुर्गादि भौतिक वस्तुओं के प्रकटीकरण का वर्णन, विद्याधरों की आकाशमार्गीय यात्राएँ तथा धार्मिक अभिषेकादि के वर्णन इस रस की सहज अभिव्यक्ति करते हैं।
सीता के अग्निदिव्य 21 करते समय धधकती आग शीतल जलवापी में बदल गई। सुन्दर कमलों युक्त वह जलराशि उफनकर सभी को समेटती नजर आती हैं, तब जनवाणी- हे महासती सीते, रक्षा करो, रक्षा करो की पुकार करती है, सीता ने अपना कर उठाकर उस जलराशि को शांत किया। देवताओं ने पुष्पवर्षा की तथा नारद नर्तन करने लगे।
यावत्सा प्राविशन्तावद्विघ्यातो बहनिराश्वपि। गर्त : स्वच्छोदकापूर्ण : स तु वापीत्वमाययौ ॥ सीता त्वधिजलं पद्मोपरि सिहासनस्थिता। पद्मेवास्थात्सती भावतुष्टदेवप्रभावतः ॥ तुदुच्छलज्जलं वाप्या उद्वेलस्येव ववारिधे : । आप्लावयि तुमारेभेमंचानपि गरीयसः ॥2 उत्पलै : कुमुदेः पद्मैं:पुंडरीकै निरंतरा ॥ सौरभौद्धांत गालीसंगीता हंसशालिनी ।
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