________________
१०/तीर्थंकर चरित्र
८. ज्ञान में निरंतर उपयोग रखना ९. दोष रहित सम्यक्त्व की अनुपालना करना १०. गुणीजनों का विनय करना ११. विधिपूर्वक आवश्यक (प्रतिक्रमण आदि) करना १२. शील और व्रत का निरतिचार पालन करना १३. वैराग्य भाव में वृद्धि करना १४. तप व त्याग में संलग्न होना १५. अग्लान भाव से वैयावृत्त्य करना १६. समाधि उत्पन्न करना १७. अपूर्व ज्ञान का अभ्यास करना । १८. वीतराग-वचनों पर गहन आस्था रखना १९. सुपात्र दान देना २०. जिन-शासन की प्रभावना करना
यह आवश्यक नहीं है कि उपरोक्त बीस ही कारणों के सेवन से तीर्थंकर नाम कर्म का बंध होता है कोई एक, दो कारण के साथ उत्कृष्ट साधना व भावों की उच्चता से भी तीर्थंकर नाम कर्म की प्रकृति का उपार्जन कर सकता है। धर्मशासन की स्थापना ___ तीर्थंकर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, बह्मचर्य व अपरिग्रह रूप धर्म की प्ररूपणा करते हैं। वे इसके महाव्रत स्वरूप की व्याख्या करते हैं। जो इसके महाव्रत स्वरूप ( संपूर्णतः) को अंगीकार करते हैं वे साधु-साध्वी की कोटि में आते हैं। जो इसके अणुव्रत स्वरूप (अंशतः)को स्वीकार करते हैं वे श्रावक-श्राविका की भूमिका में आते है । तीर्थंकर एक ऐसी धर्मशासना की स्थापना कर देते हैं जिसका अवलंबन लेकर लाखों भव्यात्माएं अपने आत्म-कल्याण का पथ प्रशस्त कर लेती हैं। द्वादश गुण
तीर्थंकरों के क्षायिक भाव के साथ-साथ पुण्य प्रकृतियों का भी भारी उदय होता है। उनके बारह विशेष गुणों में प्रथम चार क्षायिक भाव हैं और अवशिष्ट आठ उदय जन्य है। बारह गुणों के नाम इस प्रकार हैं१. अनन्त ज्ञान
२. अनन्त दर्शन ३. अनन्त चारित्र
४. अनन्त बल ५. अशोक वृक्ष
६. पुष्प वृष्टि ७. दिव्य ध्वन्नि
८. देव दुंदुभि ९. स्फटिक सिंहासन १०. भामंडल ११. छत्र
१२. चामर