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२००/तीर्थंकर चरित्र
के आंखों से अश्रुधारा बह चली। महावीर ने मुड़कर देखा। सभी बोल मिल जाने से अभिग्रह पूरा हो गया और चंदना के हाथ से भिक्षा ग्रहण की। देवों ने पंच द्रव्य प्रकट किए। देव दुंदुभि बजी। हथकड़ियां और बेड़ियां आभूषण बन गई और वह अपने मूल रूप में आ गई। यही चंदना भगवान् के केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद प्रथम शिष्या व साध्वी समाज की प्रवर्तिनी बनी। ___ कौशंबी से सुमंगल, सुच्छेत्ता, पालक आदि क्षेत्रों में विचरते हुए चंपानगरी की स्वातिदत्त की यज्ञशाला में चातुर्मासिक तप के साथ चातुर्मास किया। वहां भगवान् की साधना से प्रभावित होकर पूर्णभद्र और मणिभद्र नामक दो यक्ष रात्रि में भगवान् की सेवा व भक्ति करने लगे। स्वातिदत्त को जब यह जानकारी हुई तो सोचा- ये कोई विशिष्ट ज्ञानी है। उसने कई प्रश्न पूछे-आत्मा क्या है? प्रत्याख्यान किसे कहते हैं? इत्यादि प्रश्नों को भगवान् ने समाहित किया। साधना का तेरहवां वर्ष : अंतिम भीषण उपसर्ग । ___ चंपा का चातुर्मास संपन्न कर भगवान् छम्माणी पधारे और गांव बाहर ध्याना वस्थित हो गये। संध्या के समय एक ग्वाला बैलों को भगवान् के पास छोड़कर कार्यवश गांव चला गया। वापस आने पर जब बैल नहीं मिले तो भगवान् से पूछा तो वे मौन रहे। इस पर क्रुद्ध होकर भगवान् के दोनों कानों में काठ के कीले ठोंक दिये। प्रभु को अति वेदना हो रही थी। कहा जाता है कि महावीर ने अपने त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में जिस व्यक्ति के कान में गर्म सीसा डलवाया था वही व्यक्ति यह ग्वाला था।
छम्माणी से विहार कर भगवान् मध्यमा पधारे । वहां आहारार्थ घूमते हुए सिद्धार्थ वणिक् के सदन पहुंचे। सिद्धार्थ उस समय अपने मित्र वैद्यराज खरक से बात कर रहा था। भगवान् को दोनों ने वंदना की। प्रभु को देखकर खरक बोला- ‘भगवान् का शरीर सर्व लक्षण युक्त होते हुए भी सशल्य है?'
सेठ- 'मित्र ! कहां है शल्य?'
प्रभु की काया को देखकर खरक ने कहा- 'देखो, किसी ने कान में कील ठोक दी है। दोनों ने भगवान् को रुकने का निवेदन किया, पर उन्होंने स्वीकृति नहीं दी। महावीर पुनः ध्यानलीन हो गये।
सिद्धार्थ व खरक दवा तथा कुछ व्यक्तियों को लेकर वहां पहुंचे। खरक ने संडासी से काष्ठ की कील खींच निकाली। शलाका निकालते समय प्रभु के मुख से एक भीषण चीख निकल पड़ी, जिससे पूरा उद्यान गूंज उठा। खरक ने व्रण संरोहण औषधि घाव पर लगा कर प्रभु को वंदना की। भगवान् महावीर का यह अंतिम और भीषण परीषह था। यह एक संयोग था कि उपसर्गों का प्रारंभ ग्वाले से हुआ और अंत भी ग्वाले से।