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१७६/तीर्थंकर चरित्र
व्यक्ति की ही नहीं सम्यक्त्वी व्यक्ति की भी गति वैमानिक देवलोक की होती है। लगता ऐसा है कि जब राजा के मनुष्य भव का बंध हुआ था उस समय उन्हें सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हुई हो ! यदि सम्यक्त्वी अवस्था में अथवा चक्रवर्ती पद की पुण्य प्रकृति का बंध होने के बाद मनुष्य भव का निर्धारण हुआ है तो उसे उस क्षेत्र का 'अछेरा' समझना चाहिये। तेइसवां भव-मनुष्य (चक्रवर्ती)
पश्चिम महाविदेह क्षेत्र में मूका नगरी थी। वहां का राजा था धनंजय । र सकी पटरानी धारिणी देवी के गर्भ में नयसार के जीव ने जन्म लिया। चौदह महास्वप्नों से जन्म लेने वाले इस बालक का नाम रखा गया प्रियमित्र ।
प्रियमित्र को राज्य भार सौंपकर राजा-रानी दीक्षित हो गये। आयुधशाला में एक बार चक्र रत्न उत्पन्न हुआ । चक्र की सहायता से छह खंडों को जीतकर चक्रवर्ती बने । लंबे समय तक चक्रवर्ती पद भोगकर पोट्टिलाचार्य के पास दीक्षा स्वीकार की । प्रियमित्र की सर्वायु ८४ लाख पूर्व थी। चौबीसवां भव-स्वर्ग
महाशुक्र (सातवें) देवलोक में सर्वार्थ नामक विमान में महर्द्धिक देव बने । देव का आयुमान सतरह सागरोपम था। पचीसवां भव-मनुष्य
सातवें देवलोक से च्यव कर नयसार का जीव जंबू द्वीप के भरत क्षेत्र की छत्रा नाम की नगरी में राजकुमार संदन के रूप में जन्मा। पिता महाराज जितशत्रु व माता महारानी भद्रा थी। ___ महाराज जितशत्रु ने नंदन को राजा बना दिया और स्वयं ने संयम व्रत ग्रहण कर लिया। अब नंदन राजा बन गया। राजा नंदन की आयु पचीस लाख वर्ष की थी। इसमें चौबीस लाख वर्ष गृहस्थावस्था में बिताये। एक लाख वर्ष की आयु जब शेष रही तब पोट्टिलाचार्य के पास संयम-धर्म को प्राप्त किया। आचार्य के पास ग्यारह अंगों का अध्ययन कर राजर्षि नंदन कठोर तपस्वी बन गये। एक लाख वर्ष की संयम पर्याय में निरंतर मास-मासरवमण की तपस्या की। इस एक लाख वर्ष की चारित्र पर्याय में ग्यारह लाख साठ हजार मासरवमण किये । तप का पारणा काल तीन हजार तीन सौ तेतीस (३३३३) वर्ष, तीन मास और उनतीस दिनों का रहा । तप व अर्हत् भक्ति के द्वारा नंदन मुनि ने तीर्थंकर नाम कर्म की प्रकृति का उपार्जन किया। अंतः में दो मास का अनशन कर समाधि-मरण को प्राप्त किया। छबीसवां भव-स्वर्ग
प्राणत (दसवें) देवलोक के पुष्पोत्तर विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए। वहां