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भगवान् श्री महावीर/१७५
शीशा गर्म करवाया और शय्यापालक के कानों में डलवा दिया। शय्यापालक ने तड़फ-तड़फकर वहीं पर प्राण दे दिये । इस प्रकार उस जन्म में उन्होंने अनेक हिंसक काम किये। वहां से मरकर वे सातवीं नरक में गये। जैन-दर्शन की स्पष्ट मान्यता है कि भले ही तीर्थंकर बनने वाले जीव भी क्यों न हों, कर्म अगर असत् किये हैं तो अधम गति में जाना ही होगा। महावीर के सत्ताईस पूर्व जन्मों से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है। चारों गतियों में आचरणानुसार उनके जीव को जाना पड़ा था।
वासुदेव त्रिपृष्ठ की सर्वायु ८४ लाख वर्ष थी। उसमें पचीस हजार वर्ष बाल्यावस्था में, पचीस हजार वर्ष मांडलिक राजा के रूप में तथा एक हजार वर्ष दिग्विजय करने में लगे, अवशिष्ट ८३ लाख ४९ हजार वर्ष वासुदेव के रूप में व्यतीत हुए। वासुदेव की मृत्यु के बाद बलदेव अचल ने भगवान् के पास दीक्षा ली और सिद्धत्व को प्राप्त किया। उन्नीसवां भव-नरक
सातवीं नरक में अप्रतिष्ठान नरकावास में तेतीस सागरोपम आयु वाले नैरयिक बने। बीसवां भव-तिर्यंच
शेर की योनि में उत्पन्न हुए। इक्कीसवां भव-नरक
चौथी नरक में दस सागरोपम आयु वाले नैरयिक बने। नरक से निकलकर नयसार के जीव ने अनेक छोटे-छोटे क्षुद्र भवों में परिभ्रमण किया। वे इन सत्ताइस भवों की गिनती में नहीं है। बाइसवां भव-मनुष्य
रथनुपुर नगर में प्रियमित्र राजा राज्य करता था। उसकी महारानी विमला की कुक्षि से नयसार का जीव राजकुमार के रूप में जन्मा । उसका नाम दिया गया विमल । यौवन वय में आने पर उसका विवाह कर दिया। अपने पुत्र को योग्य समझकर प्रियमित्र ने राज्य भार सौंप दिया तथा स्वयं दीक्षित हो गये।
राजा विमल बड़ा ही नीति निपुण व सरल परिणामी था, करुणाशील था। एक बार किसी कारण से पास के जंगल प्रदेश में गया। वहां उसने देखा कि एक शिकारी ने जाल लगाकर कई हिरण व हिरणियों को पकड़ रखा है। निरपराध पशुओं की यह दशा देखकर राजा विमल के भीतर दया के भाव जागे । उसने शिकारी को निकट बुलाया और उसे समझाकर शिकार का त्याग कराया। प्रसंगवश उन जानवरों को अभयदान मिल गया। अंत में उन्होंने चारित्र ग्रहण किया।
राजा विमल के इस भव में अगला भव मनुष्य के रूप में निर्णीत हुआ। संयमी