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________________ १३६/तीर्थंकर चरित्र हरिवंश की उत्पत्ति ___ अरिष्टनेमि के पिता महाराज समुद्रविजय हरिवंशीय प्रतापी राजा थे। हरिवंश की उत्पत्ति भी विचित्र स्थितियों में हुई। दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ के शासनकाल में वत्स देश की राजधानी कौशाम्बी नगरी में सुमुह नाम का राजा था। उसी नगरी के वीरक नामक युवक की पत्नी वनमाला पर राजा मोहित हो गया और उसे प्रच्छन्न रूप से अपने पास रख लिया और क्रमशः वनमाला परमप्रिया महारानी बन गई। उधर वीरक पत्नी के विरह में अर्धविक्षिप्त सा हो गया और कुछ समय बाद वह बाल तपस्वी हो गया। एक बार राजा सुमुह वनमाला के साथ वनविहार के लिये गये। घूमते समय उनकी दृष्टि वीरक पर पड़ी। उसकी दयनीय स्थिति पर राजा को अपने कृत्य पर बड़ा दुःख हुआ और पश्चात्ताप करने लगा- मैंने यह काम बहुत गलत किया है। मेरे दोष से वीरक की यह स्थिति बनी है। ओह ? इसे कितना कष्ट हो रहा है। वनमाला को भी पश्चात्ताप हुआ। इन सरल परिणामों में दोनों के मनुष्य आयु का बंध हुआ। उसी क्षण उन पर बिजली गिरी और उनका प्राणान्त हो गया। वे यौगलिक भूमि हरिवास में युगल रूप में उत्पन्न हुये। वीरक ने पूरे जीवन अज्ञान तप तपा। आखिर वह पहले सौधर्म देवलोक में किल्विषी देव बना। उसने जब ज्ञान से यह देखा कि उसका शत्रु उसकी प्रिया के साथ भोग भूमि में सुख भोग रहा है तो उसके क्रोध की सीमा नहीं रही। वह सोचने लगा- इस दुष्ट को यहीं मार दूं । इतना पाप करके भी यह यहां उत्पन्न हुआ है। इनको मारने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। अच्छा हो इन्हें ऐसी जगह रख दूं जहां कर्म बंध का अवकाश है। इसके लिये इन्हें किसी राज्य का, राजा बनाकर मद्य-माँस भोजी बना दूं और विषय भोग में फंसा दूं जिससे ये नरक में दुःख भोगते रहें। चंपा नरेश का उस समय निधन हुआ ही था। उसके संतान न होने से सिंहासन खाली पड़ा था। राजा बनने के लिए चल रही रस्साकशी में समय और लंबा हो गया। देव ने इसे ठीक अवसर समझ कर आकाशवाणी की- तुम्हारी राजा बनने की जो समस्या है उसे मैं सुलझाता हूं। मै एक युगल प्रस्तुत करता हूं। उनका राजतिलक कर मद्य-मांस परोसो और इनके लिये भोग विलास की सामग्री प्रस्तुत करो। इनको राजकीय कार्य में उलझायें रखो। राज्य की समृद्धि बढ़ेगी।' देव ने दोनों की अवगाहना को छोटी कर सौ धनुष की कर दी। उनके एक करोड़ पूर्व के आयुष्य को घटाकर एक लाख वर्ष का कर दिया। लोगों ने मिलकर राजतिलक कर दिया। दोनों पूरे भोगासक्त रहे, परिणामतः नरक के मेहमान बने ।
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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