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भगवान् श्री नमिनाथ/१२९
अभी जितना निष्कंटक दीख रहा है, आज से नौ महीने पहले यह इतना ही विपत्तिग्रस्त था। आप सब जानते हैं, जिन शत्रुओं से हमारा नगर घिर गया था, वे असाधारण थे। हमारा सैन्य बल उनके मुकाबले कुछ नहीं था। मैं चिंतित था कि जनपद की रक्षा कैसे हो पायेगी ? मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। उस समय महारानी वप्रा ने महल के ऊपर जाकर सौम्य दृष्टि से शत्रु सेना की ओर देखा तो देखने के अनंतर ही शत्रु नरेश का मन सहसा परिवर्तित हो गया। उन्होंने अपनी बढ़ती हुई विजय-वाहिनी को वहीं रोका और युद्ध-बंद की घोषणा कर दी। मैत्री-संधि भी विजेता की भांति नहीं, जैसा हम चाहते थे उसी रूप में की। आज वे मिथिला के परम मित्र हैं और मुझे तो अपने चाचा की भांति सम्मान देते हैं। यह सारा प्रभाव इस गर्भगत बालक का ही था, अन्यथा हमारी तो हार निश्चित थी। इसके प्रभाव से वे भी मैत्री भावना वाले बन गये, अतः बालक का नाम नमिकुमार रखा जाए। सभी लोगों ने बालक को उसी नाम से पुकारा। विवाह और राज्य
बाल सखाओं के साथ कल्पवृक्ष की भांति बढ़ते हुए भगवान् नमिकुमार ने जब तारुण्य में प्रवेश किया तो राजा विजय ने आर्य जनपद की अनेक समवयस्क राजकन्याओं के साथ उनका पाणिग्रहण करवा दिया। पूर्वसंचित अनिवार्य भोग्यशील कर्मों को भोगते हुए वे भौतिक सुखों का उपभोग करने लगे। ___ समयान्तर से आग्रहयुक्त राज्य सौंपकर राजा विजय निवृत्त हो स्वयं दीक्षित हो गए। नमि ने राजा बनकर राजकीय व्यवस्था को आदर्श बना दिया। उनके शासनकाल में हर व्यक्ति स्वयं की सुविधा से पहले राज्य की सुविधा व व्यवस्था का पूरा ध्यान रखता था। दीक्षा
गृहस्थ सम्बन्धी भोगावली की परिसमाप्ति पर एकदा नमि राजा घूमने के लिए उपवन में गए। वहां उनके पास दो देव आए। सम्राट् नमि ने उनसे आने का कारण पूछा तो देवों ने कहा- 'जंबूद्वीप के विदेहक्षेत्र में सुसीमा नगरी में अपराजित नामक मुनि अभी-अभी तीर्थंकर बने हैं जब उनसे पूछा गया कि अब तीर्थंकर कौन होंगे तो उन्होंने आपका नाम बतलाया अतः हम आपके पास आये हैं।' यह सुनकर सम्राट नमि अपने उत्तराधिकारी को राज्य सौंप कर विरक्त बन गये । दीक्षा से पूर्व परम्परा के अनुसार उन्होंने वर्षीदान दिया। निश्चित तिथि आषाढ़ कृष्णा नवमी के दिन एक हजार भव्यात्मा व्यक्तियों के साथ वे सहस्राम्र उद्यान में आए। पंच मुष्टि लोच किया । देव समूह और मानवमेदिनी के बीच भगवान् नमि ने सर्व सावद्य योगों का प्रत्याख्यान किया। प्रभु के उस दिन बेले का तप था। दूसरे दिन वीरपुर के राजा दत्त के यहां उन्होंने परमान्न से पारणा किया। देवों ने प्रथम दान की विशेष महिमा