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नुसार ही रहा । उन्होंने मूल सिद्धांतों का पालन करते हुए चिकित्सा का निरूपण किया । रसचिकित्सा, काष्ठोषधियों के विशिष्ट योग आदि इन जैन विद्वानों को महत्त्वपूर्ण देन कही जा सकती है। इनका विपुल आयुर्वेद-साहित्य उपलब्ध होता है। प्राणावाय की परंपरा बाद में नहीं मिलने और जैन विद्वानों द्वारा आयुर्वेद को अपनाते हुए उस पर ही अपनी रचनाएं प्रस्तुत करने के कारण इस ग्रन्थ का नामकरण 'जैन आयुर्वेद का इतिहास' करना अधिक समीचीन प्रतीत हुआ ।
प्रस्तुत अध्ययय जैन विद्वानों द्वारा आयुर्वेद के क्षेत्र में किए गए विस्तृत कार्यों का सर्वेक्षण है। इसे इसप्रकार के शोधकार्य की प्रथम कड़ी समझा जाना चाहिए । इसीसे लेखक ने किसी पूर्वाग्रह को स्वीकार नहीं किया है। उसका दृष्टिकोण सर्वग्राही और व्यापक रहा है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जैन आयुर्वेद के ग्रन्थकारों और उनकी कृतियों का मूल्यांकन करने का यह प्रथम प्रयास है। अबतक इस विषय पर कोई भी स्वतंत्र शोध-अध्ययन नहीं हुआ है। बल्कि बहुत कम लोग जानते हैं कि जैन आयुर्वेद की प्राणवाय संज्ञक भी कभी कोई परम्परा रही थी। गत कई वर्षों से लेखक इस कार्य को करने में संलग्न रहा, इस अवधि में सैकडों पाण्डुलिपियों का अवलोकन-अध्ययन भी किया। पांडुलिपियों की खोज में विभिन्न सुदूरवर्ती क्षेत्रों की यात्राएं भी की। इस प्रकार अपने अध्ययन के परिणामस्वरूप जैन ग्रन्थकारों एवं विद्वानों की उपलब्धियों के संबंध में जो सामग्री वह जुटा पाया, वह सार-रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है ।
उपलब्ध जैन आगम-साहित्य में भी व्यवहार और मान्यताओं के रूप में आयुर्वेद सम्बन्धी विपुल सामग्री संगृहीत है, आज उसके एकत्रीकरण और विश्लेषण की बहुत बड़ी आवश्यकता है। प्रस्तुत लेखक ने इस विषय पर भी अपना प्रथम शोधकार्य कर डाला है, जो शीघ्र प्रकाशित होगा ।
लगभग पंद्रह वर्ष पूर्व-लेखक ने जैन आयुर्वेद पर एक लेख लिखा था, तब से अब तक पंद्रह से अधिक उसके शोध-लेख इस संदर्भ में प्रकाशित हो चुके हैं। उन सब के आधार पर तथा अपने सुहजजनों द्वारा उत्साहित होने पर संपूर्ण अध्ययन-सामग्री को ग्रन्थरूप देने का यह साहस किया है। प्रथम एवं सर्वथा नवीन प्रयास होने से इसमें त्रुटियां रहना स्वाभाविक है, विद्वान् पाठक उनकी ओर मेरा ध्यान आकर्षित करेंगे । अग्रिम संस्करण में उन समस्त संशोधनों को अपेक्षित स्थान देते हुए इस ग्रन्थ को परिष्कृत करने का प्रयत्न किया जा सकेगा। इस प्रसग में विद्वानों के विचार और सुझाव भी आमंत्रित हैं।
अन्त में मैं आदरणीय डा. कमलचंद सोगानी, प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, दर्शन विभाग उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर एवं मित्रवर डा. देव कोठारी का हृदय से आभारी हूं, जिन्होंने इसे प्रकाशित करने हेतु बार-बार उत्साहित किया और इस संबन्ध में सुझाव दिये।
नवरात्र-स्थापना 25, सितम्बर, 1984
विद्वत्कृपाकांक्षी (डॉ.) राजेन्द्रप्रकाश भटनागर