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3 शल्यहृत्य (तृण, काष्ठ, पाषाण, लोहा, अस्थि, नख आदि शस्त्रों का उद्धरण)। 4 कायचिकित्सा (ज्वर, अतिसार आदि रोगों का उपशमन)। 5 जांगुली (विषघातक तंत्र)। 7 रसायन (आयु, बुद्धि आदि बढ़ाने का तंत्र)। 8 वाजीकरण (वीर्यवर्धक औषधियों का शास्त्र)।1
चिकित्सा के मुख्य चार पाद माने गये हैं - 1. वैद्य, 2. रोगी, 3. औषधि और 4. प्रति चर्या (परिचर्या) करने वाला (परिचारक । सामान्यतया विद्या और मंत्रों, शल्यचिकित्सा और वनौषधियों (जड़ी-बूटियों) से चिकित्सा की जाती थी और इसके आचार्य यत्र-तत्र मिल जाते थे। जैसा कि निम्न उल्लेख से ज्ञात होता है
अनाथी मुनि ने मगध सम्राट राजा श्रेणिक से कहा- "जब मैं अक्षि-वेदना से अत्यन्त पीड़ित था, तब मेरे पिता ने मेरी चिकित्सा के लिए वैद्य, विद्या और मंत्रों के द्वारा चिकित्सा करने वाले आचार्य, शल्यचिकित्सक और औषधियों के विशारद आचार्यों को बुलाया था।'
चिकित्सा की अनेक पद्धतियाँ प्रचलित थीं। इनमें आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति सर्वमान्य थी। पंचकर्म-वमन, विरेचन आदि का भी विपुल प्रचलन था। रसायनों का सेवन कराकर भी चिकित्सा की जाती थी।
चिकित्सक वैद्य को 'प्राणाचार्य' भी कहा जाता था । पशु चिकित्सा के विशेषज्ञ भी होते थे। किसी एक वैद्य ने चिकित्सा कर एक सिंह की आंखें खोल दी।'
वैद्यकशास्त्र के विद्वान (वैद्य) को 'द्रष्टपाठी' (प्रत्यक्षकर्माभ्यास द्वारा जिसने वास्तविक अध्ययन किया है) कहा गया है। 'विपाकसूत्र' की निम्न पंक्तियों में तत्कालीन 'वैद्यकर्म' का सुन्दर रीति से वर्णन हुआ है
1 स्थानांगसूत्र 8, पृ. 404, विपाकसूत्र 7, पृ. 41, इन पाठ अंगों का विशेष वर्णन
सुश्रुतसंहिता सूत्रस्थान अ. 118 परमिलता है। ५ उत्तराध्ययन, 20:23 । उत्तराध्ययन, 20122 4 उत्तराध्ययन, 1518
बृहद्वृत्ति, पत्र 11 ६ बृहद्वृत्ति, पत्र 475 ' बृहत्वृत्ति, पत्र 462
'केनचिद् भेषजा व्याघ्रस्य चक्षुरूद्घाटितमटव्याम् । 8 निशीथचूर्णी 711757
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