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सामाजिक जीवन
की जाती थी। इसी प्रकार वस्त्रों को रंगने वाले रजक भी मौजूद थे।१९ 'बृहत्कल्पभाष्य' में कई तरह के लौह उपकरणों का उल्लेख है जिससे प्रतीत होता है कि उस समय लोहार भी थे। इसी तरह लकड़ी एकत्रित करने वालों को कट्टहारग, घास काटने वाले को तणहारग और पत्ते इकट्ठे करने वालों को पत्तहारग कहा गया है।२१
अस्पृश्य
'बृहत्कल्पसूत्र' में अस्पृश्यों का कोई उल्लेख नहीं है जबकि समसामयिक अन्य जैन ग्रंथों२२ में इनका उल्लेख हुआ है। 'बृहत्कल्पभाष्य की वृत्ति में डोम्ब, चण्डालों आदि का उल्लेख है२३ जो अस्पृश्य माने जाते हैं। विवाह
प्राचीनकाल से ही विवाह की प्रथा सभी समाजों में विद्यमान पायी जाती है। वंश, कुल और परिवार की निरन्तरता विवाह से बनी रही है तथा जीवन के विविध पक्ष इससे अनुप्राणित होते रहे हैं। इस ग्रन्थ में धार्मिक विश्वास, स्थायित्व और सामाजिकता ये तीनों विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं।
हिन्दू संस्कृति में विवाह का महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि वहाँ यह एक धार्मिक संस्कार के रूप में गृहीत है। इसके अन्तर्गत स्त्री-पुरुष का यौन सम्बन्ध ही नहीं आता बल्कि उसकी धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्रियाएँ भी आती हैं जिनके माध्यम से मानव परिवार और समाज का विकास होता है। वस्तुतः सन्तान की उत्पत्ति, उनकी देख-रेख और लालन-पालन, आर्थिक आवश्यकता की पूर्ति और सामाजिक उत्तरदायित्व तथा सदाचार का अनुगमन एवं नैतिक मूल्यों की स्थापना विवाह के आधार पर ही होती है।
जैन आगमों में विवाह के सम्बन्ध में निश्चित व्यवस्था की जानकारी नहीं मिलती। हां इतना अवश्य कहा गया है कि वर और वधू को समान आयु का होना चाहिए। प्राचीन भारत में बड़ी अवस्था में विवाह होना हानिप्रद समझा जाता था। एक लोकश्रुति उद्धृत की गयी है कि यदि कन्या रजस्वला हो जाय तो जितने उसके रुधिर के बिन्दु गिरें, उतनी ही बार उसकी माता को नरक का दुःख भोगना पड़ता है।
मां ते फंसेज्ज कुलं आदिज्जमाणा सुया वयं पत्ता । धम्मो य लोहियस्सा जइ बिंदू तत्तिया नरया ।।२४