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बृहत्कल्पसूत्रभाष्य : एक सांस्कृतिक अध्ययन
का उल्लेख मिलता है जिन्होंने संसार त्यागकर सिद्धि प्राप्त की। इनमें उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, ज्ञात और इक्ष्वाकु मुख्य हैं। वैश्य
जैन धर्म को मानने वाले ज्यादातर लोग व्यापारी थे, जैसा आज भी है, क्योंकि इस धंधे में हिंसा होने की कम गुंजाइश रहती है। 'बृहत्कल्पभाष्य' में वैश्यों का स्पष्ट उल्लेख तो नहीं है परन्तु उसमें जो संदर्भ वाणिज्य-व्यापार, उद्योगधंधे, सार्थवाह आदि से संबंधित हैं और जिसकी विशद् चर्चा आर्थिक जीवन वाले अध्याय में की गई है वे सब इसी वर्ग के लोगों से संबंधित हैं। इस धन्धे में लिप्त लोगों को वणिक, श्रेष्ठी और सार्थवाह कहा जाता था। 'बृहत्कल्पभाष्य' में किठि वणिक', श्रेष्ठीपुत्र थावच्च', श्रेष्ठीपुत्र सालिभद्द° और सार्थवाह का भी उल्लेख हुआ है। 'बृहत्कल्पभाष्य' की वृत्ति में दृढ़मित्र और धनमित्र'३ जैसे प्रसिद्ध सार्थवाहों का उल्लेख है। 'बृहत्कल्पभाष्य' में एक ऐसे श्रेष्ठी का भी उल्लेख है जो अट्ठारह कारीगरों से कार्य कराता था।१४ धन की समुचित व्यवस्था के लिए वणिक अपनी श्रेणियाँ बनाते थे जिससे व्यापार में उन्हें सुविधा होती थी। 'बृहत्कल्पभाष्य' में इसी तरह के एक सारस्वत गाथा का उल्लेख भी मिलता है।१५
शूद्र
समाज में शूद्र का स्थान अत्यन्त निम्न था। उसे पतित और हेय समझा जाता था।६ लेकिन न तो 'बृहत्कल्पभाष्य' में और न ही अन्य जैनग्रंथों में शूद्र अभिहित किसी वर्ण का उल्लेख है। इसका प्रमुख कारण यह है कि जैन परंपरा में हिन्दू वर्ण व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया गया। जैन परंपरा के अनुसार तो समाज का कोई भी व्यक्ति जैनसंघ का सदस्य हो सकता है। उनके यहां वर्गविभेद जैसी कोई बात ही न थी। फिर भी जिन लोगों को शूद्र के अन्तर्गत रखा गया है उनके कुछ संदर्भ यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
'बृहत्कल्पभाष्य' में चर्मकर्म के बारे में बतलाया गया है कि वस्त्र के अभाव में जैन-साधु चमड़े का उपयोग कर सकता है।
__कोसग नहरक्खट्ठा, हिमा-ऽहि-कंटाइसू उ खपुसादी ।
कत्ती वि विकरणट्ठा, विवित्त पुढवाइरक्खट्ठा ।।१७ इसी प्रकार जैन साध्वियों के सम्बन्ध में उल्लेख है कि आवश्यकता पड़ने पर वे लोमरहित चर्म का उपयोग कर सकती हैं।१८ इन दो उद्धरणों से यह स्पष्ट होता है कि उस समय चर्मकार मौजूद थे जिनकी गणना शूद्रवर्ण के अन्तर्गत