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बृहत्कल्पसूत्रभाष्य : एक सांस्कृतिक अध्ययन
के भाष्य की वृत्ति आचार्य क्षेमकीर्ति ने १२७५ ई. में पूरा किया जिसका ग्रन्थमान ४२६०० श्लोक प्रमाण है।
बृहत्कल्पसूत्रभाष्य की विषयवस्तु १४
यह भाष्य बृहत्कल्पसूत्र की तरह ही छः उद्देशों में विभक्त है। इसके अतिरिक्त भाष्यकार संघदासगणि ने ८०५ श्लोक - प्रमाण एक पूर्वपीठिका लिखी है। इसमें बृहत्कल्पसूत्र के प्रथम उद्देश के ५९ सूत्रों पर २४८४, द्वितीय उद्देश के २५ सूत्रों पर ३८९, तृतीय उद्देश के ३१ सूत्रों पर १९९८, चतुर्थ उद्देश के ३७ सूत्रों पर ८०५, पंचम उद्देश के ४२ सूत्रों पर ३७८ और षष्ठ उद्देश के बीस सूत्रों पर ४३१ गाथाएँ लिखी गयी हैं। इस प्रकार पीठिका सहित सम्पूर्ण भाष्य में कुल ६४९० पद्यबद्ध प्राकृत गाथाएँ हैं।
पीठिका में मंगलाचरण के बाद ज्ञानपंचक, अनुयोग और कल्पव्यवहार आदि जैन-धर्म-दर्शन के मौलिक सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला गया है। पीठिका के बाद भाष्यकार ने प्रत्येक मूलसूत्र की व्याख्या करते हुए प्रसंगवश उस काल की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, भौगोलिक, धार्मिक आदि परिस्थितियों की भी चर्चा की है। ये सभी चर्चाएँ आमतौर पर श्रमण- श्रमणियों के संदर्भ में ही की गयी हैं।
प्रथम उद्देश प्रलम्बसूत्र में श्रमण- श्रमणियों के आहार के सम्बन्ध में ताल, आम्र आदि फलों का, उनके उपाश्रयों के सन्दर्भ में- ग्राम, नगर, खेट, कर्वट, मडम्ब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, सम्बाध, घोष, अंशिका, पुटभेदन, शंकर आदि वस्तियों का, तीर्थंकर के समवसरण के सन्दर्भ में - वैमानिक, ज्योतिष्क, भवनपति, व्यंतर आदि देवों का, समवसरण की रचना के सन्दर्भ में - प्राकार, द्वार, पताका, ध्वज, तोरण, चित्र, चैत्यवृक्ष, आसन, छत्र, चामर आदि का, श्रमण - श्रमणियों के भिक्षा उपकरणों का, रथयात्रा जैसे मेले का, बीमार साधुओं की चिकित्सा के सम्बन्ध में आठ प्रकार के वैद्यों का, नगर, ग्राम आदि दुर्ग के अन्दर और बाहर स्थित वस्तियों का, एक परिक्षेप (चहारदिवारी) और एक या अनेक द्वार वाले ग्रामों का अनेक परिक्षेप और अनेक द्वार वाले ग्राम का, उपाश्रय में घटीमात्रक रखने का, उपाश्रय में चार प्रकार के चिलिमिलिका या पर्दा टांगने का, चित्रकर्म युक्त उपाश्रयों का, देव, मनुष्य एवं तिर्यन्च की प्रतिमाओं से युक्त उपाश्रयों का, श्रमण- श्रमणियों के विहार के संदर्भ में वैराज्यों (विरुद्धराज्य) का, देशान्तर, रात्रि या विकाल में गमन के समय श्रमण