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प्रस्तावना
जिनभद्रगणि का प्रश्न है वे विक्रम संवत् ६५० (५९३ ई.) के आस-पास मौजूद थे। चूँकि जिनभद्रगणि ने अपने ग्रन्थ 'विशेषणवती' में वसुदेवहिण्डी-प्रथम खण्ड में ऋषभदेवचरित की संग्रहणी गाथाएँ बनाकर उनका अपने ग्रन्थ में समावेश किया है अत: वे वसुदेवहिण्डी- प्रथम खण्ड के प्रणेता वाचक संघदासगणि से पूर्ववर्ती हैं।१० भाष्यकार संघदासगणि भाष्यकार जिनभद्रगणि के पहले हुए या बाद में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता परन्तु इतना निश्चित है कि वे जैन आगमों के मर्मज्ञ विद्वान थे और छेदसूत्रों पर उनका विशेष अधिकार था।११ सम्भवतः संघदासगणि ६०० ई. के आस-पास हुए थे। बृहत्कल्प-बृहद्भाष्य
बृहत्कल्पसूत्र पर प्राकृत गाथाओं में एक और भाष्य लिखा गया जिसके लेखक का नाम अज्ञात है। संघदासगणि के भाष्य से अलग पहचान के लिए ही इसे महाभाष्य और संघदासगणि के भाष्य को लघुभाष्य कहा जाता है। आकार में बड़ा होने के कारण ही इसे महाभाष्य कहा गया है। दुर्भाग्य से यह अपूर्ण ही उपलब्ध है और अभी तक अप्रकाशित है। इसमें लघुभाष्य की कुछ गाथाओं को ज्यों का त्यों और कुछ में हेर-फेर कर आगे पीछे रखा गया है। इस समय इसमें लगभग सात हजार गाथाएँ हैं और जब यह ग्रन्थ पूर्ण रहा होगा तब उसमें लगभग १५ हजार गाथाएँ रही होंगी जो कि लघुभाष्य की लगभग दोगनी हैं।१२ चूँकि संस्कृत टीकाकार क्षेमकीर्ति ने बृहद्भाष्य का उल्लेख किया है और उसमें लघुभाष्य समाहित है अत: इसकी रचना क्षेमकीर्ति से पूर्व और संघदासगणि से बाद में हुई प्रतीत होती है। बृहत्कल्पसूत्रभाष्य की संस्कृत-वृत्ति
नियुक्तियों, भाष्यों और चूर्णियों के बाद जैनाचार्यों ने जैन आगमों पर संस्कृत टीकाएँ भी लिखीं। इनकी रचना से जैन साहित्य का काफी विस्तार हुआ। संस्कृत टीकाकारों ने जैन आगमों पर लिखे भाष्य आदि के विषयों का विस्तृत विवेचन किया और नये-नये हेतुओं द्वारा उन्हें पुष्ट भी किया। इनकी रचना से जैन आगमों को समझने में काफी मदद मिली। इन संस्कृत टीकाकारों में एक महत्त्वपूर्ण नाम मलयगिरि का है जो प्रसिद्ध जैन आचार्य हेमचन्द्र के समकालीन थे।१३ मलयगिरि ने संघदासगणिकृत 'बृहत्कल्पसूत्रभाष्य' की पीठिका की भाष्य गाथा ६०६ पर्यन्त ही अपनी बृहत्कल्पपीठिकावृत्ति लिख सके। शेष पीठिका तथा आगे के मूल उद्देशों