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________________ (८५) जंबूद्वीप में सुमेरु पर्वत के उत्तर भाग में ऐरावत क्षेत्र तीनों लोक में विख्यात है। उसके मध्यम खंड में आर्य क्षेत्र में अमरपुर जैसा, शत्रुओं के लिए दुर्गम, हजारों धनिकों से सुशोभित, तीनों लोक की लक्ष्मी से परिपूर्ण सुप्रतिष्ठ नाम का एक नगर है। कुबेर के विभव को हँसनेवाला, देवगुरु पूजक, दया-दाक्षिण्य से युक्त हरिदत्त नाम का एक श्रेष्ठी रहता था। रति के सौभाग्य को जीतनेवाली शील विनय निधान विनयवती नाम की उनकी भार्या थी। उसके साथ विषय-सुख का अनुभव करते हुए श्रेष्ठी को वसुदत्त नाम का एक पुत्र हुआ। उसके बाद विनयवती को क्रमशः सुरेंद्र सुंदरी के रूपातिशय को जीतनेवाली सुलोचना, अनंगवती और वसुमती नाम की तीन कन्याएँ हुईं, युवावस्था प्राप्त होने पर सुलोचना का विवाह मेखलावती नगरी के सागर दत्त पुत्र सुबंधु के साथ, अनंगवती का विवाह विजयवती नगरी के धनभूतिसार्थवाहपुत्र धनवाहन के साथ, वसुमती का विवाह मेखलावती के समुद्रदत्त सार्थवाह पुत्र धनपति के साथ हुआ। कलाकुशल धनपति वसुमती के साथ विषयसुख भोगने लगा, परस्पर अत्यंत स्नेह होने से उन दोनों का समय आनंद से बीतने लगा । एक समय धनपति वणिक् वसुमती के साथ महल में सोया था, चंद्रकिरण प्रकाशित रात्रि के पिछले पहर में वसुमती की नींद खुली । अपनी शय्या पर पुरुष को सोए हुए देखकर वह भय से एकाएक पवन प्रेरित वृक्षलता की तरह काँपने लगी। मेरे घर में यह कैसे आया ? क्या इसने मेरे वल्लभ को मारकर यहाँ सो रहा है ? अथवा मुझे देखने में भ्रम हो रहा है ? इस प्रकार तर्कवितर्क करने के बाद उसने निश्चय किया कि वह परपुरुष ही है, देव जैसा इसका रूप है, परगृह में प्रवेश कर विश्वस्त होकर सो
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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