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________________ (८१) प्राप्त करने पर भी सुख दुर्लभ है । सुप्रतिष्ठ ? यह कहकर मेरा कण्ठ पकड़कर वह रोनेलगी तब मैंने समझाते हुए कहा कि सुंदरि ! जो प्राप्त करना था प्राप्त कर लिया है, अब जो होगा वह होगा । तुम्हारा संगम नहीं होने पर यदि मृत्यू होती तो दुःख था, अब मृत्यु से भी मुझे दुःख नहीं, जिस प्रकार असंभवित तुम्हारा संगम प्राप्त हुआ उसी प्रकार आगे भी अच्छा होगा : उपाय करना चाहिए, उपाय करने पर फल नहीं मिलने से भी कोई दुःख नहीं, नरवाहणकी शक्ति को जानते हुए मैंने यह किया है, अतः अब पश्चात्ताप करने की आवश्यकता नहीं, अतः सुंदरि? हम यहाँ से रत्नसंचय चलें पीछे जैसा उचित होगा, करेंगे। उसके बाद उसके साथ मदनदेव को प्रणाम करके गगनमार्ग से चला, इतने में राग-अंधकार से मोहित चित्तवाले मनुष्य के चरित्र को देखने के लिए सूर्य उदित हुआ, कुछ दूर चलने के बाद उसने कहा कि प्यास से कण्ठ जलता है । अब यहाँ से वह नगर कितनी दूर है ? मैंने कहा, सुंदरि? नगर बहुत दूर है, यहाँ उतरता हूँ, कोई जलाशय अवश्य होगा । यह कहकर उत्तर गया, झरने का जल पीकर वह वृक्ष की शीतल छाया में बैठ गई, मैं भी शरीर स्नान करके वहीं आ गया। सुप्रतिष्ठ ? अपने नगर को चलने का विचार कर ही रहा था इतने में नज़दीक के कदलीवन में एक शब्द सुनाई पड़ा । मुझे लगा कि यह चित्रगति का शब्द होगा, फिर सोचा, इस वन-निकुंज में वह कहाँ से आएगा ? मैं इस प्रकार चिंतन कर हो रहा था इतने में कदलीवन से एक तरुणी स्त्री के साथ चित्रगति निकला, देखते ही में उसके पास गया, स्नेहपूर्वक परस्पर आलिंगन के बाद बैठने पर मैंने कहा कि मदनगृह से निकलकर मित्र ?
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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