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________________ प्रकाशकीय भारतवर्ष में जैनों की संख्या अल्प-सी ही है, हालाँकि जैन धर्म, जैन साहित्य एवं जैन संस्कृति अति प्राचीन और पुरातन है । भारतवर्ष और भारतवर्ष से बाहर अन्य राष्ट्रों में भी जैनी फैले हुए हैं । वे विविध क्षेत्रों में कार्य करते हैं । फिर भी जन-मानस में जैनों के सम्बंध में विविध एवं विभिन्न भ्रांतियाँ व्याप्त हैं- जिसके कारण उसे चाहिए उतना न्याय आज के युग में मिला नहीं है । इसके मूल में कई कारण हैं: जैन समाज व्यवसायी होने के कारण प्रचार-प्रसार प्रणाली के प्रति उदासीनता, जैन साहित्य का अर्धमागधी और गुजराती भाषा में लेखन-पठन एवं राजाश्रय का न होना 1 जैन धर्म युगादि से चला आ रहा है । उसकी संस्कृति अत्यंत प्राचीन है । जैन साहित्य में हर क्षेत्र से सम्बंधित साधन-सामग्री मिलती है । जैनियों की अपनी भौगोलिक, खगोल, वैज्ञानिक, साहित्यिक मान्यताएँ और व्याख्याएँ हैं । लेकिन आजतक वे सब जैन शास्त्रों तक ही सीमित रहीं, अर्धमागधी एव गुजराती सदृश भाषा में होने में आम वर्ग से दूर रही, मुद्रित न होने से प्रचार-प्रसार के क्षेत्र से बाहर रहीं; ठीक वैसे समाज तथा श्रमण समाज के पुरातनवादी दृष्टिकोण से सदा-सर्वदा उपेक्षित बनी रही। यही वे तथ्य हैं जिनके कारण जैन समाज अत्यंत धनाढ्य और राष्ट्र के राजनैतिक, सामाजिक, नैतिक, क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हुए भी जैन धर्म, साहित्य और संस्कृति का पर्याप्त मात्रा में प्रचार-प्रसार नहीं हो सका है । हाँ, पिछले कुछ वर्षों से जैन श्रमण समाज और समाज में नए विचारों की हवा बहने लगी है । फलतः जैन साहित्य मुद्रित होने लगा है, अन्य भाषाओं में अनुवादित हो आम जनता तक पहुँचने लगा है। 'सुरसुंदरी चरित्र' भी उसी का एक भाग है । इसके मूल लेखक कवि धनेश्वर हैं । दीर्घावधि तक यह कथा अप्रकाशित रही, तब कहीं प्रथम बार ४२ वर्ष पूर्व मुनि श्री राजविजयजी
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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