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________________ (२६) देवि ? तुम्हारे विरह में नर-नारियों से भरा यह नगर उजड़े हुए नगर के समान तथा जंगल जैसा दिखाई दे रहा है, देवि ? तुम कहती थी, " मैं आपके विरह में नहीं जी सकती हूँ' तो फिर तुमने मुझ अभागे को कैसे छोड़ दिया ? मैंने ऐसा कौनसा अपराध किया है जिससे तुम रुष्ट हो गई और बोलती नहीं हो, तुम्हारे ऊपर सब से अधिक स्नेह था इसीलिए तो मैंने अंतःपुर की सभी स्त्रियों को छोड़ दिया था । मैं तुम में इतना अनुरक्त हूँ, सुंदरि ? फिर भी तुम जवाब नहीं देती हो, स्वामिनि ? प्रसन्न होओ- होओ और मेरे साथ बातचीत करो, इस प्रकार राजा जब करुण विलाप कर रहे थे धनदेव ? मैं रोता हुआ उनके पास पहुँचा, मुझे गोद में बिठाकर एक बालक की तरह ज़ोर ज़ोर से विलाप करते हुए राजा और अधिक रोने लगे ? इतने में मंत्री सुमति ने राजा से कहा कि देव ? रोने से क्या ? रानी का अग्नि संस्कार कीजिए । राजा ने कहा कि चंदन की लकड़ी बाहर मंगाओ, क्योंकि मैं भी रानी के साथ अग्नि में प्रवेश करूँगा, मंत्री ने कहा कि राजन् ? आप मरने का विचार क्यों करते हैं ? यह तो कायरों का काम है, आप धैर्य धारण करें, राजन ? आपके मरने से सारे देश पर शत्रु राजाओ का आक्रमण हो जाएगा और दूसरी बात यह है कि सुप्रतिष्ठ कुमार अभी बच्चा हैं, देव ? आपके जीने पर ही तो देव ब्राह्मण तपस्वी और गरीब जनता इनकी सभी धार्मिक कियाएँ चलती हैं, एक स्त्री के लिए आप जैसे उत्तम पुरुष को इस प्रकार अनुचित कार्य करना ठीक नहीं है, क्यों कि उत्तम पुरुष तो जगत के स्वभाव को जानते हैं, जब निरुपक्रम शरीरवाले भगवान ऋषभ देव का भी मरण हो गया तो फिर अन्य मनुष्यों की बात हो क्या ?
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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