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(२०) रही हैं तो मेरे सामने आओ मैं तुरत ही तुम्हारी खुजली मिटा देता हूँ, ऐसा मत बोलो कि मैंने तुमसे पुरुषार्थ दिखलाने के लिए नहीं कहा, यही तो वीरों की कसौटी है, अपनी स्त्री से प्रशंसित पुरुष कभी भी वीर नहीं कहलाते, इस प्रकार धनदेव के जोशीले शब्द को सुनकर " इसे भी पकड़ो" यह कहकर हर्षध्वनि करते हुए भील लोग धनदेव के सामने आ गए और तीखी तलवार भाला, तोमर आदि शस्त्रों से प्रहार करने लगे। धनदेव भी निःशंक होकर उनके सामने अपनी छाती अड़ाकर अपना पुरुषार्थ बतलाने लगा । युद्धकला निपुण धनदेव उनके प्रहार को निष्फल करने लगा। फिर भी किसी तरह भीलों ने फलक आदि शस्त्रों से धनदेव को पकड़ लिया और सार्थपति समझकर किसी प्रकार की चोट पहुंचाए बिना पल्ली पति के पास ले आए इतने में देवशर्मा ने धनदेव को पहिचानकर दुःखी होते हुए पल्ली पति से कहा कि स्वामिन् ? ये महानुभाव तो वे ही धनदेव हैं जिसने आपके लड़के को एक लाख सुवर्ण मोहर देकर योगी के पंजे से छुड़ाया था । जयसेन कुमार को बचानेवाले उपकारी धनदेव के साथ इन पापियों ने कैसा दुर्व्यवहार किया है ? देवशर्मा की बात सुनते ही आश्चर्यचकित होकर पल्लीपति सुप्रतिष्ठ ने धनदेव को छुड़ाकर अपने पास बैठाकर बड़े प्रेम से आलिंगन करके दीर्घ निःश्वास लेते हुए कहा कि आपने मेरा उपकार किया था इसलिए आपके पास जाकर मुझे आपका दर्शन करना चाहिए था, उसके बदले मेरे घर पर आए हुए आपका मैंने ऐसा स्वागत किया है, पापियों पर किया हुआ उपकार बुरा फलवाला ही होता है क्यों कि सर्प को दिया हुआ दूध विष बन जाता है, इसलिए मैंने बड़ा पाप किया है, उनकी बात सुनकर धनदेव ने कहा कि आप इतना खेद क्यों करते