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तथा प्रवतिनी सहित साध्वीयों को सम्बोधित करते हुए कहा कि आप लोग वैर को एकदम छोड़ दें, जिस मोहिल जीव सुमंगल को परभव में रुष्ट होकर धनपतिजीव-देव ने विद्याहरण करके माणुस पर्वत के पार छोड़ दिया था। मनुष्य रहित जंगल में घूमते समय सर्प से दष्ट होकर मरकर वह संसार में परिभ्रमण करता है, वही सिद्धार्थपुर में कनकवती का पुत्र सुरथ हुआ। क्षयरोग से सुग्रीव राजा के मरने पर वह राजा हुआ। पूर्वकर्म के उदय होने पर सुप्रतिष्ठ ने राज्य ले लिया। वहाँ से वह चम्पानगरी में आया । मातामह कीर्तिधर्म राजा ने उसे सौ गाँव दिए। उसकी अनीति से कीर्तिधर्म के पुत्र भीम राजा ने उसे निकाल दिया । जंगल में घूमते हुए बालतप करके, मरकर ज्योतिषवासी शनैश्वर देव हुआ । पूर्व वैर को स्मरण करके यहाँ आकर उनका हरण करके लवण समुद्र में उन्हें फेंक दिया। शुभ परिणाम में रहकर कर्मों को जलाकर भवभयमुक्त अभी वे अंतकृत केवली बन गए।
सूरि के वचन सुनते ही साधु साध्वी सब अत्यंत संविग्न हो गए, इतने में श्मशान से अमरकेतु मुनि वहाँ आए और कहा, भगवन् ! गुरु की आज्ञा से धनदेव के साथ मैं सबेरे मकरकेतु मुनि के पास गया। वहाँ उनको नहीं देखा, किंतु जलती चिता को देखकर आया है, अत्यंत संवेग में आकर सूरि ने कहा कि दुःख से पीड़ित घूमता हुआ मदनवेग यहाँ आया। श्मशान में जाने पर पिता को प्रतिमा धारण किए देखकर उसने सोचा कि वैरी को मारकर अभी अपने जीवन को सफल करूँ इतने में एक गाडीवाला लकड़ी से भरी गाड़ी को संध्या समय वहाँ छोड़कर बैल लेकर नगर में आ गया । अंधकार होने पर लकड़ी से उन्हें ढंककर उसने आग लगा दी। अविचल भाव से शुक्ल ध्यान से कर्मों को जलाकर वे भगवान् अंतकृत केवली हो गए !