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________________ (२२०) इस तरह पिता के द्वारा अपमानित होकर आपका जीना बेकार है, इस प्रकार के वचन रूप घृत से उसकी क्रोधाग्नि को बढाकर उसे इस स्थिति में ले आया कि उसने क्रोध में आकर कहा कि आप मुझे मेरे वैरी पिता को दिखलाइए, जिससे कि शीघ्र मैं अपने अपमान का फल उसे दे दूं, उसने कहा कि अंगरक्षक हाथ में नंगी तलवार लिए आपके पिता की रक्षा करते हैं, अतः आप रूपपरिवर्तिनी विद्या ग्रहण करें जो साधक के सभी कामों को सिद्ध करती है। यह कहकर उसने उसे रूप-परिवर्तिनी विद्या दे दी। जंगल में जाकर उसने विद्या सिद्ध कर ली । हस्तिनापुर आकर सुरसुंदरी की दासी ललिता का अपहरण करके दूर देश में कहीं रखकर उसके वेष में राजा को मारने की इच्छा से अंतःपुर में रहने लगा। राजा को जब से साँप ने काट लिया था, तब से सुरतादि छोड़कर अपने हाथ में दिव्यमणिवाली अंगूठी को बराबर रखतें हैं । एक दिन भोजन करके राजा सुरसुन्दरी के घर सोने के लिए गए। पापिन दासी ने देख लिया । अंगरक्षकों को बाहर ही छोड़कर राजा जब घर के अंदर जाकर कुछ देर परिहास की बातें करके सुरतारम्भ के समय देवी ने अंगूठी को आभरणस्थान में रख दिया । ज्यों ही राजा ने सुरत प्रारम्भ किया त्यों ही हाथ में तलवार लेकर दासीवेश में वह दुष्ट वहाँ पहुँच गया। माता के साथ सुरत में आसक्त पिता को मारने के लिए पुत्र तैयार होता है, अतः संसारवास को सर्वथा धिक्कार है, अपना पुत्र अपनी माता के साथ अपने पिता को संभोग करते समय मारता है, यह पुत्र का अत्यंत बड़ा दोष है, राग से द्वेष उत्पन्न होता है, द्वेष से वैर उत्पन्न होता है, वैर से जीव प्राणिघात करता है, और प्राणिघात से गुरुकर्म को बाँधता है, और गुरुकर्मी प्राणी तिर्यंच और नरक के दुःखों को
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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