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________________ ( १८७) में दुःखों को अनुभक करते हैं । उसके बाद किसी किसी तरह मनुष्यत्व को प्राप्त होते हैं फिर भी शारीरिक, मानसिकी ममेक कष्टों का अनुभव करते हुए दारिद्रय दोष से गृहीत होकर नीचों को सेवा करते हैं। दूर देश जाते हैं, धन प्राप्त करने के लिए दिनरात काम करते हैं, इष्टः बियोग, अनिष्ट संयोग आदि में अनिर्बचनीय दुःखों का अनुभव करते हुए अनेक रोगों से पीडित होकार कभी भी शांति का अनुभव नहीं करते हैं, ज़रा गृहीत होकर, मरकर किसी-किसी तरह देवत्व को प्राप्त होते हैं, वहां दूसरे बड़े देवों की समृद्धि को देखकर ईर्ष्या-विषाद भयशोक से ब्याकुल रहते हैं, अपने स्वामी के आदेश का पालन करना पड़ता है, च्यवन समय में देव भी अत्यंत दुःखी होते हैं। इस प्रकार जीव चौरासी लाख योनि में परिभ्रमण करते हुए दुःख का अनुभव करते हैं, जीव जब तक जिन-धर्म को प्राप्त नहीं होते, तब तक यह भवभ्रमण रहता ही है। अतः हे देवानुप्रिय? आप लोग जिन-देशित धर्म की आराधना करें, वह जिन-धर्म दो प्रकार का है, यति धर्म और गृहस्थधर्म, सम्यक्त्व दोनों का सार है । वह सम्यक्त्व तत्वार्द्धश्रद्धान रूप है, तत्त्व जीव-अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंधमोक्षनी हैं, सूक्ष्म बादर आदि जीव के चौदह भेद हैं, धर्म-अधर्म आकाशादि चौदह अजीव के भी भेद हैं, पुण्य प्रकृति के बेआलिस भेद हैं, इसी प्रकार पाप प्रकृति के बयासी भेद हैं, आसव के बेआलिस, संवर के सत्तावन, निर्जरा के बारह तथा बंध के चार भेद हैं, ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का क्षय शाश्वत मोक्ष कहलाता हैं, इन तत्त्वों को तीर्थंकर देव तथा साधुओं के प्रति श्रद्धा से सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । मन, वचन काय योग से सावध कर्मत्याग ये सब यंति धर्म में आते हैं। पृथिव्यादि पड़ जीक निकायों में क्या । सबल १ . . ATEST
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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