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________________ (१८६) नसरके तिर्यक मनुष्य देव गति में परिभ्रमण करनेवाला जीव किसी-किसी तरह इस संसार में मनुष्यत्व को प्राप्त करता है, मनुष्यत्व प्राप्त करने पर भी मिथ्यात्वादि से मोहित अनेक जीव विषयलोलुप बनकर, परलोक हित का आचरण नहीं करते हैं, जिन-वाणी से वंचित रहकर, कार्य-अकार्य को भी नहीं जानते हैं, अपनी मर्यादा को छोड़कर भक्ष्याभक्ष, पेयापेय, गम्यागम्य आदि का भी विचार नहीं करते हैं । शास्त्रीय उपदेश से धर्माधर्म की व्यवस्था करनेवाले आचार्यों को वे धूर्त बतलाते हैं। पंचभूत से अतिरिक्त जीव को मानते * है नहीं हैं, और जीव के अभाव में परलोक का भी खंडन करते हैं, इस प्रकार निर्दयता से जीवहत्या करते हैं, मिथ्या बोलते हैं, अदत्त वस्तु लेते हैं, परदार सेवन करते हैं, रागद्वेष से मोहित होकर रात्रि भोजन ही नहीं किंतु मधु-मद्य माँस भक्षण भी करते हैं, क्रोध - मान-माया-लोभ रूप चार कषायों से युक्त होकर क्लिष्टकर्म भी करते हैं । इस प्रकार काल करके तीव्र दुःखदायी नरकों में जाकर तेज तलवार से काटे जाते हैं, काँटोंवाले शेमल वृक्ष की शाखा पर चढ़ाकर रस्सियों से बाँधे जाते हैं और नीचे खींचे जाते हैं, उनके शरीर को काट-काटकर, अग्नि में पकाकर लोग खाते हैं, अनेक अपवित्र वस्तुओं से भरी वैतरणी नदी में गिरकर माँ माँ कहकर चिल्लाते हैं, असिपत्र वन में उन्हें ढकेला जाता है, रक्षा करों, शरणागत हैं, यह कहने पर पूर्वभव की बातों को स्मरण कराकर उन्हें पीटा जाता है। इस प्रकार नरक में अनेक कष्टों को भोगने पर वहाँ से उद्धृत्त होकर, तिर्यल योनि में उत्पन्न होते हैं, वहाँ भी भूख, प्यास, शीस, आतप, वध, बंघ, रोग, वेदना, भारारोपण आदि अनेक कष्टों का अनुभव करने पर फिर अनेक योनियों T
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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