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________________ (१८२) की पोटली अपने वगाना छुपाकरमाक डूबते समय कूदने के लिए तैयार थो, इतमा में एकाएक एक पार्वत से टकराकर, नावः फूटकर शामुक में यूँबागई. में एक काष्ठ फलक को प्राप्त कर तरंग के वेग से पांच दिन में किनारे लगा। वहाँ सूर्य की किरण लगने से शरीरे की जड़ता छाडापन) कुछ कम हुई, काष्ठः फलक से उतरकर सुपक्य केले खाकर, भूख शांत की। सूखे नारियल को फोड़कर तेल लगाया, सरोवर के किनारे चंदा वृक्ष के पहलवरस से स्नान किया। जायफल एलायची सहित ताम्बूल खाकर एक रस्म शिलापट्ट पर बैठकर चिंतन करने लगा कि हाय ? एकाएक कैसे धन परिजन का नाश हो गया माव कूटने पर वे महानुभाव कहाँ होंगे? काठ फलक को प्राप्त कर यदि किसी तरह पार कर गए हो,तो बहुत अच्छा होता इस प्रकार चिंतन करते हुए जब मैं कितने दिनों तक वहाँ रहा, तब एक दिन किसी ने कहा, धनदेव? आप इतने खिन्न क्यों दीखते हैं ? तब चकित होकर मैं उधर देखता हूँ तो एक दैदीप्य. मानः शरीर प्रसन्ना मुख अनेक अलंकार तथा पचरंगे वस्त्रों को धारणा किए एक देव को मैंने देखा, अभ्युत्थान करते हुए आदर से उसने मेरा आलिंगन करके मुझसे कहा, भद्र ! क्या तुम मुझे पहिचानते हो। तब मैंने कहा, देव? मैं अभी भी आपको ठीक से नहीं जान पा रहा हूँ, अतः आप बललाइए कि आप कौन हैं ? और कहाँ मुझे आपका दर्शन हुआ था. देव ने कहा कि आपने हस्तिनापुर के उद्यान में जिस देवशर्मा को देखा था और जिसके कहनेले लाख हेकर सुप्रतिष्ठ पुत्र जयसेन को बनाया था, जंगल में भापके सार्थ को जल भीलों ने लूटा था, उस समय सुप्रतिष्ठ के यहाँ आपने मुझे देखा था । कुशीग्रपुर से लौटने पर जब सिंहगुफा
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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