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________________ (१८१) फेंक रहा हूँ, यह कहकर वह बेताल एकाएक अदृश्य हो गया और मैं धड़ाक से समुद्र में गिर पिड़ा। बार-बार नभोगामिनी विद्या का स्मरण किया किंतु उसके पद स्मरण में नहीं आए, तब मैंने निश्चय किया कि इसने विद्याच्छेद भी कर दिया। य कोई प्रचंड शत्रु देव होगा। धनदेव ! तब मैं अपनी बाँह के बल से ही समुद्र पार करने के लिए तैयार हो गया । राजन् ? उसने ज्यों ही अपना वृत्तांत सविस्तर इस प्रकार बतलाया, इतने में निर्यामक ने भयभीत होकर इस प्रकार जोर से आवाज दी कि हे नाविक पुरुष! आप लोग सावधान हो जाए क्योंकि आकाश में यमराज वंदन के समान अत्यंत भयंकर औत्पातिक जंतु बादल की तरह दीख रहा है। अब वह अवश्य उपद्रव मचाएगा। बहुत जल्दी नाविकों सहित नाव का विनाश करेगा। उसकी बात सुनकर, कूपस्तंभ पर चढ़ कर, लोग देखने लगे और लोगों ने जीने की आशा भी छोड़ दी । उसके बाद नंगर छोड़ दिया । कूपस्तम्भों को तिरछा कर दिया। सफेद वस्त्र से नाव को ढक दिया । इतने में आकाश काले-काले बादलों से ढक गया । समुद्र खलबलाने लगा। प्रचंड पवन बहने लगा। यमराज की जिव्हा के समान बिजली छिटकने लगी। यमराज के सुभट के समान मेघ भी गरज ने लगे। समुद्र की तरंगें इतनी तेज हो गई कि नंगर डालने पर भी नाव अपने स्थान से खिसकने लगी। प्रचंड पवन के वेग से तथा तरंगों की तीव्रता से, कड़कड़ाकर नंगर टूटने लगे। बंधन टूटने पर बड़ी तरुणी घोड़ी की तरह नाव वेग में भागने लगी। नाव डूबने के भय से लोग अपने-अपने इष्टदेव का स्मरण करने लगे। उन्मत्त की तरह नाव इधर-उधर सागर में घूमने लगी। कुछ लोग करुण विलाप कर रहे, थे, कुछ सुवर्ण
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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