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________________ (१५४) बड़ी होने पर नृत्य - गीत, वीणावादन, व्याकरण, तर्क आदि सभी कलाओं तथा शास्त्रों में मैं प्रवीण बन गई, मैं बुद्धि में बृहस्पति के समान बन गई, एक पद को सुनकर लब्धि से शेष पद का मैं तर्क कर लेती थी। मुझे देखकर माता-पिता तथा समस्त परिजन को बड़ा हर्ष हो रहा था । युवावस्था में आने पर मुझे देखकर योग्य वर के लिए पिताजी बड़े चिंतित थे । इतने में एक दिन सुमतिनैमित्तिक आए, पिताजी ने उनसे पूछा कि मेरी कन्या का विवाह किसके साथ होगा ? उन्होंने कहा, राजन् ? यह विद्याधर चक्रवर्ती की अत्यंत प्रिया पटरानी होगी । उनके वचन सुनकर, प्रसन्न होकर पिताजी ने पर्याप्त धन से उनका सत्कार करके उन्हें बिदा किया । I उसके बाद एक दिन अपनी सहेलियों के साथ मैं नगर के बाहर उद्यान में अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं करती हुई आनंद से घूम रही थी, इतने में उद्यान के एक भाग में एक विद्याधर कन्या को देखा, वह किसी मंत्र का जाप करके बाँहें फैलाकर आकाश में उड़ना चाहती थी किंतु उड़ नहीं पा रही थी, पृथिवी पर गिर जाती थी । उसे देखकर मुझे आश्चर्य हुआ, उसके पास जाकर मैंने उससे पूछा, भद्रे ! तुम कौन हो ? और यह क्या करती हो ? उसने कहा, भद्रे ? सुनो, वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में रत्नसंचय नाम का एक नगर है । चित्रवेग नामक विद्याधर चक्रवर्ती वहाँ के राजा हैं, कुंजरावर्त नगर में भानुवेग नामक राजा हैं, उनकी दो बहनें हैं, बड़ी बंधुदत्ता और छोटी रत्नवती । बंधु दत्ता का विवाह चित्रवेग के साथ हुआ, मैं उनकी पुत्री हूँ, मेरा नाम प्रियंवदा है, पिताजी की कनकमाला नाम की दूसरी महादेवी का पुत्र मकरकेतु नाम का है, वह मेरा बड़ा प्रिय है । उसका विरह
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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