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________________ (१५३) नहीं है ? एकांत सेवन करती है, वियुक्त चक्रवाकदम्पती को जोड़ती है, प्रियसंगम की बातें एकाग्रचित्त होकर सुनती है, इससे लगता है कि यह अवश्य प्रेमग्रहग्रस्त होगी । किंतु यह बतलाएगी नहीं यह सोचकर कमलावती ने अपनी दासी हँसिका को बुलाकर उससे कहा कि तुम इसके उद्वेग कारण का पता लगाओ । ' आपकी जैसी आज्ञा' यह कहकर हँसिका सुरसुंदरी के पास गई और अनेक प्रकार से स्नेहसूचक बातों से उसके चित्त में विश्वास उत्पन्न करके एक दिन एकांत में हँसिका ने उससे पूछा कि सुरसुंदरी ? आपका चरित्र सुनने की मुझे बड़ी इच्छा है, इसलिए आप बतलाइए कि किस कारण से किसने आपका अपहरण किया था और आपने क्या-क्या अनुभव किया है ? सुरसुंदरी ने कहा कि पिताजी ने भी मुझसे पूछा था किंतु लज्जा के मारे मैं उनसे कह न सकी । मेरा चरित्र ऐसा है कि सुननेवाले को और मुझे भी कहने से दुखदाई बनेगा, फिर भी सखि ? तुम्हारा आग्रह है, अतः मैं कहती हूँ अत्यंत गहरी परिखा, अत्यंत ऊँचे प्राकार आदि से मण्डित पुण्यवान मनुष्यों से पूर्ण अनेक श्रीमंतों से विभूषित हज़ारों वीरों से अलंकृत चतुरंगिणी सेना से सुरक्षित कुशाग्रपुर नाम का एक नगर है, उस नगर में अत्यंत पराक्रमी सुविख्यात नरवाहन नामक राजा हैं, उस राजा को बाल्यकाल में वैताढ्य पर्वत पर कुंजरावर्त नगराधीश चित्रभानु विद्याधर के पुत्र भानुवेग के साथ मित्रता हो गई, भानुवेग ने मित्रता स्थिर रखने के लिए अपनी बहन रत्नवती के साथ उनका विवाह कराया । उसके साथ विषयसुख का अनुभव करते हुए राजा को कालक्रम से मैं ही एक पुत्री हुई, राजा ने पुत्रजन्म से भी बढ़कर उत्सव मनाया । सुरसुंदरी के समान रूप होने से मेरा नाम ही 'सुरसुंदरी' रख लिया । कुछ
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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