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________________ (१२५) सुप्रतिष्ठ ने कहा कि आप इस मणि को स्वीकार करेंगे, इससे मैं अपने को कृतार्थ मानूंगा, अतः मेरे संतोष के लिए आप अवश्य इसे स्वीकार करें, सुप्रतिष्ठ के अत्यंत आग्रह पर धनदेव ने मणि को ग्रहण कर लिया। फिर सूप्रतिष्ठ ने कहा, धनदेव ! कुशाग्रपुर से लौटते समय अवश्य यहां आने का अनुग्रह करेंगे । यह स्थान तो रास्ते पर ही पड़ता है। लौटने के समय अवश्य आऊँगा। इस प्रकार बातचीत करके उसके घर पर रात बिताकर सार्थ के तैयार हो जाने पर सुप्रतिष्ठ के घर से निकलकर सार्थ को चला। परिजन सहित पल्लीनाथ ने अनुगमन किया, किसी-किसी तरह धनदेव ने पल्लीनाथ को पीछे लौटाया। वेसर पर चढ़कर धनदेव सार्थ के साथ वहाँ से चला । थोड़े दिन में कुशाग्रपुर पहुंचा, वहाँ अत्यंत बहुमूल्यवस्तु राजा नहवाहन राजा को उपहार रूप में देकर राजा का प्रीतिभाजन बना । सागर श्रेष्ठी के मकान भाड़े पर लेकर उसमें अपना भाण्ड उतारा । इस के बाद वहाँ क्रय-विक्रय करते कितने महीने बीत गए ? व्यापार के प्रसंग में सागर श्रेष्ठी के पुत्र श्रीदत्त के साथ धनदेव को बड़ा प्रेम हो गया । एक दिन श्रीदत्त बड़े आदरभाव से भोजन कराने के लिए धनदेव को अपने घर पर ले गया। वहां भोजन करते समय अत्यंत रूपवती नवयौवन में प्रवेश करती हुई श्रीदत्त की बहन श्रीकांता जब पंखा झेल रही थी, उसको देखते ही धनदेव ने उसके प्रत्येक अगों का निरीक्षण किया, उसने भी स्नेह से धनदेव को देखा । रोमांचित होकर धनदेव मन में सोचने लगा कि मांगने पर यदि ये लोग मुझे यह कन्या दे दें तो इस भार्या से मेरा मनुजत्व सफल हो जाए। यदि स्वयं याचना करूँ और ये लोग देना नहीं स्वीकार करेंगे तो लघुता होगी । अथवा समान जाति का हूँ, व्यसनरहित
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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