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________________ (१०२) मैं भी प्रिया कनकमाला के साथ आकाश में उड़कर विकसित कमलादि से सुशोभित अनेक सरोवरों को फलभार से नम्र शाखाओं से शोभित वृक्षों से भरे बड़े-बड़े उद्यानों को पर्वत के अनेक झरनों को किन्नर मिथुन आदि से रम्य, अनेक पर्वत के शिखरों को देखता हुआ दक्षिण दिशा की ओर चला। कुछ दूर जाने के बाद बिजली के समान दैदीप्यमान एक तेज को देखकर कुछ विकल्प कर रहा था, तब मेरी प्रियतमा ने कहा, प्रियतम ! यह बिजली या उल्का नहीं है, क्यों कि यह स्थिर है, अतः कोई देव अथवा देवविमान होना चाहिए ! सुप्रतिष्ठ ! हम दोनों इस प्रकार बात कर ही रहे थे, इतने में एक भास्वर कांतिवाला देव वहाँ आया। जब मैंने प्रणाम किया तब उस देव ने मुझ से कहा कि चित्रवेग? सर्वथा कुशल तो हैं न ? मुझे आप पहचानते हैं या नहीं ? तब मैंने कहा कि सामान्य रूप से मैं जानता हूँ कि आप देव हैं, विशेष रूप से मैं नहीं पहिचान रहा हूँ, इस भव में तो नहीं किंतु अन्य भव में आपके साथ परिचय अथवा सम्पर्क अवश्य रहा है क्यों कि आपको देखने में आनंद का अनुभव हो रहा है। इतना कहने पर उस देव ने एक दैदीप्यमान मणि निकाल कर मुझ से कहा, मित्र? आप इस मणि को ग्रहण कीजिए । तब मैंने कहा कि आप मुझे यह बतलाइए कि इस मणि का क्या उपयोग होगा? आप मुझे यह मणि क्यों दे रहे हैं ? पूर्व भव में आपके साथ मेरा कैसा सम्बन्ध था ? तब उस देव ने कहा कि अभी पूर्वभव संबंध बतलाने का समय नहीं है, अभी आप इसको ग्रहण कीजिए। यह मणि सभी विपत्तियों को दूर करेंगी, तब मैंने कहा कि मेरे ऊपर कौन-सी विपत्ति आनेवाली है ? तब उस देव ने कहा कि विद्या बल से नहवाहण ने सारी बातें जान ली हैं,
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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