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________________ (१०१) अरणिकाष्ठ को घिसकर आग सुलगाई और सेंक किया, कुछ देर में मैंने कहा, संदरि ! अब तुम स्वस्थ हो गई। अब अपने स्थान को चलें, उसके द्वारा स्वीकार कर लेने पर हम दोनों निकलें तब चित्रवेग ! मैंने आपको यहां देखा। यही कनकमाला की बहन प्रियंगमंजरी है । मित्र ! आपका उपकार करने से मुझे यह लाभ हआ। सूप्रतिष्ठ ! आपने जो पूछा था उसका उत्तर दे दिया। चित्रगति ने जब उस प्रकार कहा, तब मैंने कहा, मित्र! मैं अत्यंत निर्दय हृदयवाला हूँ जिससे कि आपको मैंने संकट में डाल दिया। आपको तो अपने पुण्य से अभीष्ट सिद्धि हुई, मित्र ! आपने तो दयिता प्राप्त कराकर मुझे जीवनदान दिया है, अतः आपके समान उपकारी तो दूसरा हो ही नहीं सकता। तब चित्रगति ने कहा कि मैंने आपका क्या उपकार किया ? आपके शुभकर्म का ही यह सुंदर परिणाम है । आप तो सज्जनतावश मेरी प्रशंसा कर रहे हैं । फिर उसने कहा कि नहवाहण बड़ा प्रचंड है। उसने अनेक विद्याएँ सिद्ध कर ली हैं, अतः उससे बचने का उपाय आपने क्या सोचा है ? तब मैंने कहा, अधिक सोचने से क्या लाभ ? जिस प्रकार अत्यंत दुर्लभ इस कनकमाला को मैंने प्राप्त किया उसी प्रकार मित्र ! आगे भी कुछ अच्छा ही होगा । मेरी बात सुनकर चित्रगति ने कहा, कि आपका यह कहना ठीक है फिर भी यों बैठना ठीक नहीं है । अतः आप यहाँ से दूसरे स्थान को चले जाइए । किसी भी प्रकार शरीर-रक्षा आवश्यक है । मैं भी यहाँ से सुरनंदन जाऊँगा और ज्वलनप्रभ राजा को अशनिवेग के साथ मित्रता कराकर उसके द्वारा दी गई पूर्वभवदयिका इस प्रियंगमंजरी के साथ विवाह करूंगा। सुप्रतिष्ठ ! यह कहकर प्रियंगुमंजरी के साथ चित्रगति आकाश में उड़ गया और अपने स्थान को चला गया।
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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