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________________ शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास कालान्तर में कुषाण साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया। दूसरी शताब्दी ई. के अन्त तक शूरसेन जनपद के राजनीतिक मंच पर नाग वंश का उदय हुआ। कुषाण साम्राज्य को ध्वस्त करने वाली शक्तियां नाग, मद्य, यौधेय, माधेय, मालव, कुणिंद और वाकाटक वंशीय राज्यों की थी। ___ नागों के आधिपत्य के फलस्वरूप व्यापार शिथिल पड़ गया क्योंकि राजनीतिक एकता विखण्डित होने लगी थी। भारतवर्ष की प्राचीन जातियों में नाग जाति का उल्लेख मिलता है और यह अनार्य जाति थी। कुषाण शासन का अन्त करने में नाग जाति की महत्वपूर्ण भूमिका थी। भारशिव नाग शैव धर्मानुयायी थे और भारतीय संस्कृति के पोषक एवं रक्षक थे। वे अत्यन्त वीर थे। नाग जाति शैव धर्मानुयायी थी परन्तु उनके शासनकाल में जैन धर्म तथा अन्य धर्मों की गतिविधियां भी प्रचलित थीं। नागों ने अपना वैवाहिक सम्बन्ध महत्वपूर्ण राजवंशों के साथ स्थापित किये थे। वाकाटक वंश के गौतमी पुत्र का विवाह पद्यावती के शासक भवनाग की पुत्री से सम्पन्न हुआ था। महान सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की राजमहिषी कुबेरा देवी नागवंश की राजकुमारी थी। नाग शासनकाल में भी कुषाणों की भांति इस जनपद को धर्म, कला-कौशल तथा व्यापार का प्रमुख केन्द्र होने का गौरव प्राप्त हुआ। इस जनपद में जैन धर्म, बौद्ध धर्म तथा वैष्णव धर्म का समान रूप से प्रचार-प्रसार होता रहा। नाग शासन के पतन के पश्चात् यह जनपद गुप्त सम्राटों के शासन के अधीन आ गया। गुप्त सम्राट की नीति धार्मिक सहिष्णुता की थी अतः उन्होंने सभी धर्मों को समान रूप से प्रोत्साहित किया। गप्त शासक वैष्णव धर्मावलम्बी थे परन्तु उनके राज्य में प्रजा स्वतन्त्र थी। प्रजा पर कोई राजधर्म नहीं था। प्रजा अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म को अंगीकार कर सकती थी। गुप्त सम्राटों का किसी धर्म
SR No.022668
Book TitleShursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangita Sinh
PublisherResearch India Press
Publication Year2014
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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