SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास । इन कलाकृतियों की प्राप्ति से यह विदित होता है कि प्राचीन समय में जैन धर्म शूरसेन जनपद के कोने-कोने तक फैला था । उपर्युक्त छोटे-छोटे स्थान से तीर्थंकर प्रतिमाओं की प्राप्ति हुयी जिससे यह विदित होता है कि सामान्य जन पूजा-अर्चना के लिए तीर्थंकरों की प्रतिमाएं प्रतिस्थापित कराते थे 168 विवेच्य क्षेत्र में जैन मूर्तिकला कुषाण काल में अपनी चरमोत्कर्ष पर थी। समय-समय पर उत्खनन कार्य किया गया जिसमें असंख्य जैन प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं । प्रतिमाओं के सूक्ष्म अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि प्रारम्भिक काल में जिनों के लांछन नहीं थे । प्रतिमाओं पर चतुरवर्ग संघ का अंकन दृष्टव्य है 1 इनमें साधु साध्वी श्रावक और श्राविकाएं अंकित हैं। एक महत्वपूर्ण उदाहरण में तीर्थंकरों के जन्म कल्याण का अंकन है। महावीर के भ्रूण का स्थानान्तरण करने का दृष्य है तथा इसमें शिशुओं के देवता नैगमेष की पूजा करने का महत्व भी अंकित है। एक अन्य उदाहरण है भगवान ऋषभ का वैराग्य पट्ट या नीलान्जना का नृत्यापट्ट । इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान ऋषभ को संसार की असारता का ज्ञान हुआ और उन्होंने वैराग्य धारण कर लिया क्योंकि नृत्य करते-करते ही आयु पूरी होने के पश्चात् नीलान्जना की मृत्यु हो जाती है । यह देखकर ऋषभनाथ को वैराग्य हो जाता है । कंकाली टीले से प्रथम शती ई. पू. से लेकर बारहवीं शताब्दी तक प्रतिमाओं का निर्माण कार्य प्रमुख रूप से हुआ । मथुरा कला शैली के अन्तर्गत निर्मित प्रतिमाएं विशिष्ट हैं। इनमें सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएँ विशेष महत्वपूर्ण है। सर्वप्रथम मथुरा कला शैली के अन्तर्गत निर्मित मूर्तियों के कन्धे पर बिखरी लटों और सर्पफण के आधार पर आदिनाथ एवं पार्श्वनाथ की पहचान कर सकते हैं। इसकी विशेषता यह है कि तीर्थंकरों के लांछनों का प्रयोग सर्वप्रथम मथुरा कला शैली के अन्तर्गत ही हुआ ।
SR No.022668
Book TitleShursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangita Sinh
PublisherResearch India Press
Publication Year2014
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy