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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
के अनुसार प्रवृत्ति का त्याग करके निवृत्ति का अनुपालन ही वास्तविक और स्थायी सुख का स्त्रोत है।2।।
जैन धर्म का आचार तत्व मन और आत्मा की शुद्धि पर विशेष बल देता है। इसमें बाह्य शुद्धि के स्थान पर अन्तः शुद्धि पर विशेष जोर दिया गया है तथा सच्चरित्रता और सदाचारण उसके प्रधान आधार माने गए हैं।
जैन धर्म को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। उच्च एवं नीच का निर्धारण कर्म से होता है। सत्कर्म का पालन करने वाला व्यक्ति ही उच्च है।
जैन धर्म ने दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया। त्रिरत्न एवं स्यादवाद, अहिंसा, पंचअणुव्रत आदि सिद्धान्त जैन धर्मदर्शन के प्रमुख तत्व है। जिनका व्यावहारिक पक्ष आज भी दृष्टिगत होता है। ___ शूरसेन जनपद में जैन धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान यह है कि जन सामान्य ने भी जैन धर्म एवं दर्शन को स्वीकार करके प्रचार-प्रसार में विशेष भूमिका अभिनीत की। ___ जैन दर्शन के फलस्वरूप भारतीय, दार्शनिक चिन्तन परम्परा को गौरव प्राप्त हुआ। उनका स्याद्वाद, तत्वज्ञान, अनेकान्तवाद, कर्म, पुर्नजन्म, द्वैतवादी, सिद्धान्त आधुनिक दार्शनिकों के लिए माननीय है। इसके अतिरिक्त दर्शन के क्षेत्र में जैन धर्म ने सृष्टि, आत्मा, जीव, अजीव, आदि पर विचार प्रस्तुत किये तथा दार्शनिक खण्डन-मण्डन के सिद्धान्त को प्रोत्साहित किया। ___ जैन धर्म अनीश्वरवादी धर्म है परन्तु व्यक्ति की आत्मा की सर्वोच्च स्थिति का लक्ष्य स्पष्ट करता है। अहिंसा को जनसाधारण से लेकर शासकों तक पहुँचाने का श्रेय जैन धर्म को ही प्राप्त है। सभी जीवों को भी जीने के अधिकार का तथ्य स्पष्ट करने का श्रेय जैन धर्म को ही जाता है।