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________________ 148 शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास शौरसेनी प्राकृत-साहित्य में सर्वोदयी-संस्कृति का व्यापक वर्णन किया गया है। वह हृदय-परिवर्तन एवं आत्मगुणों के विकास की संस्कृति स्वीकार की गई है। उसका मूल आधार, प्रेम, मैत्री, करूणा एवं मध्यस्थ भावना है। जैन कथा साहित्य का प्रभाव हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी कथाओं पर भी पड़ा। इस सन्दर्भ में जॉन हर्टल का कथन उल्लेखनीय है- “जैन साहित्य केवल संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं के लिए ही उपयोगी नहीं है, बल्कि भारतीय सभ्यता के इतिहास पर भी इससे महत्वूपर्ण प्रकाश पड़ता है। ___ जैन धर्म में दो शब्द हैं- एक जैन तथा दूसरा धर्म। जैन शब्द 'जिन' से बना है। 'जिन' शब्द का अर्थ है, जीतने वाला। इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला 'जिन कहलाता है। इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके कोई भी व्यक्ति 'जिन' अर्थात् परमात्मा बन सकता है। इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला वीतराग हो सर्वज्ञ बन जाता है। इस अवस्था में वह जो भी उपदेश देता है वह प्रामाणिक होता है। 'जिन' द्वारा दिया गया उपदेश ‘जैनधर्म' कहलाया। दूसरे शब्दों में अपने पौरूष से आत्मा को परमात्मा और सामान्य जन को सुखी बनाने का मार्ग ही जैन धर्म है। जैनाचार्यों ने वस्तु के स्वभाव को धर्म माना है। प्रत्येक के लिए जो उसका निज गुण है। स्वभाव है वही धर्म है। गीता में भी उल्लिखित है“स्वधर्मे निधने श्रेयः परधर्मों भयावहः।"26 शास्त्रों में धर्म की व्याख्या कर्तव्य अथवा दायित्व के रूप में भी की गई है। मानव जीवन के उत्थान के लिए जो भी करने योग्य है, वही धर्म है। धर्म का सार तत्व आचरण है और इसकी सीमाएं शास्त्रों में निहित है। धर्म साधना हेतु अधर्म का त्याग ही सर्वश्रेष्ठ है। सागरमल जैन के मतानुसार, “वह सब धर्म है, जिससे मन की आकुलता समाप्त हो, चाह और चिन्ता मिटे तथा मन की निर्मलता, शान्ति, स्वभाव और आनन्द से भर जावे।"27
SR No.022668
Book TitleShursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangita Sinh
PublisherResearch India Press
Publication Year2014
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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