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________________ 84 शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास लेख के अनुसार इसके संस्थापक लोहिए गोप हैं, और धरती पर बने 'रंग-नर्तन' में सर्वहित सुख के लिए इस प्रतिमा को स्थापित किया गया था। फलस्वरूप जैन आगमिक ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी की भुजा में पुस्तक के प्रदर्शन की परम्परा प्रारम्भ हुई।80 जैन परम्परानुसार नैगमेश और नैगमेशी देवता का मुख बकरे के समान होता है। यह बच्चों के रक्षक के रूप में प्रसिद्ध है। इसकी पत्नी रेवती या षष्ठी देवी भी शिशुओं की रक्षिका मानी जाती है। एक कुषाण कालीन नैगमेश की प्रतिमा प्राप्त हुई है जिसे बच्चों के साथ प्रदर्शित किया गया है। __कंकाली टीले से प्राप्त एक तोरण-खण्ड पर नैगमेश देवता की प्रतिमा निर्मित है और नीचे 'भगव नेमेसो' उत्कीर्ण है।92 कुषाण कालीन एक अजमुखी प्रतिमा एक फुट साढ़े तीन इंच ऊँची है। बायें हाथ से दो शिशुओं को पकड़े हुए हैं, जो उसकी जंघा पर लटक __एक अन्य प्रतिमा एक फुट पाँच इंच ऊँची है और प्रत्येक कन्धे पर दो-दो बालक बैठे हुए प्रदर्शित हैं तथा दाहिना हाथ अभय मुद्रा में ___ एक प्रतिमा अजमुखी देवी की एक फुट चार इंच ऊँची है। एक तकिया उसके बायें हाथ में है, जिस पर एक बालक अपने दोनों हाथ वक्षस्थल पर रखे हुए सो रहा है। देवी का दाहिना हाथ खण्डित है। एक अन्य देवी प्रतिमा के गले में हार लटक रहा है। यह अजमुखी मानवाकृतियाँ प्रथम द्वितीय शती ई. तक लोकप्रिय रही। इनके साथ कुछ शिशुओं का अंकन भी किया जाता है। गुप्तकाल में भी जैन मूर्तिकला का विकास दृष्टिगोचर होता है। कुषाण काल की अपेक्षा गुप्तकालीन, जैन कलाकृतियों की संख्या कम है, परन्तु इनका क्षेत्र विस्तृत है। ये प्रतिमाएं राजगिर, विदिशा, उदयगीर, अकोटा, कहोम और वाराणसी से भी मिली हैं।
SR No.022668
Book TitleShursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSangita Sinh
PublisherResearch India Press
Publication Year2014
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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