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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य रात्रिगमन के दोष बता कर रात्रि को बाहर परठने का निषेध कर के पूरी रात मूत्र आदि को रखने की बात की है, क्योंकि शास्त्रकारों के मतानुसार पूरी रात मूत्र आदि रखने पर भी संमूर्छिम आदि की कोई विराधना है ही नहीं।"
ऐसे अभिप्राय वाला रामलालजी महाराज का बयान अन्य शास्त्रों के साथ पूर्वोक्त प्रकार से तुलना करने पर बेबुनियाद साबित होता है। हक़ीक़त में वे दोष रात को वसति के बाहर जाने में विशिष्ट प्रत्यपाय की संभावना हो वैसे स्थल में एकाकी श्रमण को लगते हैं। तथा श्रमणिओं के लिए घटीमात्रक का उपयोग कर के पूरी रात मूत्रादि रखने की बात विशेष आपवादिक है। हकीक़त में तो दो-तीन श्रमण तथा दो-तीनचार साध्वीजी भगवंतों को रात्रि में कायिकी वगैरह भूमि में जाने की अनुज्ञा दी गई है। यदि संमूर्छिम मनुष्य की विराधना का प्रश्न ही न होता तो पूरी रात मूत्रादि रख कर सुबह सूर्योदय के बाद ही परठने की विधि बताई होती न ! रात्रि के समय बाहर जाने की बात क्यों करते? विशेष भय न हो तब तीन-चार साध्वीजी भगवंतों को एकसाथ कायिकी आदि भूमि पर जाने की बात शास्त्रकारों ने क्यों की ? मात्रक में (=प्याले में) पूरी रात मूत्रादि रखने का विकल्प तो हाज़िर ही है।
बृहत्कल्पभाष्य में तो वहाँ तक फरमाया है कि कारण-संयोगवश साध्वीजी अकेले हो और गृहस्थ स्त्री के साथ कहीं रुके हो। वैसे संयोगों में रात्रि को लघुशंका होने पर उन्हें अन्य गृहस्थ स्त्री को नींद में से उठा कर बिनती करनी चाहिए कि 'आप मेरे साथ बाहर चलो।' जब वह गृहस्थ स्त्री अनिच्छा ही दर्शाए तभी निरुपाय होने से मात्रक में कायिकी(=मूत्र) का विसर्जन कर के उसे पूरी रात रख कर सुबह उसकी परिष्ठापना करने की बात की गई है। ऐसी विधि दर्शा कर शास्त्रकार क्या सूचित करना चाहते हैं? यदि प्रस्रवण रखने में किसी भी प्रकार की विराधना ही न हो तो फिर गृहस्थ स्त्री को नींद में से उठा कर बिनती करने