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________________ संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य में प्रस्रवण परठने हेतु मकान के बाहर जाने में शील- सुरक्षादि बाबतों में अनेक प्रत्यपाय संभवित हैं । अतः वैसे संयोग में उन्हें रात्रि को प्रस्रवण परठने हेतु बाहर जाने की मनाई फरमाई है और वैसी अवस्था में लघुशंकानिवारण की व्यवस्था के एक भाग के रूप में घटीमात्रक की अनुज्ञा दी गई है । तथा श्रमणों के लिए विशिष्ट प्रत्यपायों की संभावना के अलावा प्रतिदिन प्रस्रवण परठने हेतु रात को बाहर जाना शक्य होने से घटीमात्रक का निषेध फरमाया है । श्रमणों को रात्रि के समय परठने हेतु बाहर जाने में श्रमणिओं की माफिक सामान्यतः शीलसुरक्षादि की समस्या नहीं होती । शास्त्रकारों को विशेष संयोगों के अलावा, घटीमात्रक का उपयोग कर के पूरी रात प्रस्रवण को रखने की बात अभिप्रेत नहीं है । परंतु जब रात्रि को बाहर आवागमन करने में शीलादि की विराधना का बहुत बड़ा दोष संभवित हो वहाँ लाभालाभ की तुलना कर के अधिक अपाय से बच कर कम से कम नुक़सान मोलने की बात की है । अर्थात् 'सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति पण्डितः ' - इस न्याय से घटीमात्रक का उपयोग कर के प्रस्रवण को पूरी रात रखने की बात की गई है। शास्त्रकारों का यह आशय विचारकों के लिए अस्पष्ट रहे वैसा नहीं है । ० बृहत्कल्पसूत्र के आधार पर रहस्योद्घाटन एक आगमवचन का अन्य अन्य आगमिक संदर्भों के साथ संकलन करने से ही शास्त्रकारों के आशय सुस्पष्ट समझ में आ सकते हैं । अन्यथा शस्त्रकारों के आशय को अन्याय होता है । पहले (पृ. - ४६ ) निशीथ का सूत्र पेश किया था । उसका अर्थ करते हुए रामलालजी महाराज ने यूँ कहा था कि - " रात्रि के समय उच्चार आदि परठने का निषेध बता कर सूर्योदय के बाद परठने को कहा है। भाष्यकार ने ६३
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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