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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य अन्य संस्करण-विवेचन के संस्कार-अनुकरण से लिखा गया हो वैसा लगता है।) यदि सूर्योदय से पूर्व परिष्ठापन को निषिद्ध माना जाए तो सूर्यास्त से पूर्व उच्चार-प्रस्रवण के परिष्ठापन हेतु स्थंडिल का प्रतिलेखन करना भी निरर्थक हो जाता है। पात्र में विसर्जित उच्चार आदि में जीवोत्पत्ति होने से संयमविराधना तथा सूत्र की अस्वाध्यायी का भी प्रसंग आता है।
अतः प्रस्तुत वाक्यांश का अर्थ कालसूचक न कर स्थानसूचक करना युक्तिसंगत प्रतीत होता है। अर्थात् ऐसा स्थान जहाँ सूर्य न उगता हो, जहाँ सूर्य का प्रकाश एवं धूप नहीं पहुंचती हो, वहाँ परिष्ठापन करना सदोष है।
श्रीमज्जयाचार्य कृत हुंडी से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है - 'रात्रि विकाले उच्चार पासवणरी बाधा इ पीड्यो थको साधु आपणा पात्र विषै उच्चार-पासवण परठी करी नै तावडो न आवै त्यां नाखै' निशीथहुंडी ३/८०"
ये सब विवेचन अत्यंत स्पष्टतया सिद्ध करते हैं कि संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने के लिए प्रत्येक परंपरा उद्यमवंत रही है। निशीथहंडी जैसे प्राचीन आधार भी इसमें शामिल हैं। 'दिया वा' पाठ न मानने पर भी 'संपूर्ण रात्रि तक उच्चार-प्रस्रवण को रखे रहना, उसे परठना नहीं' - ऐसी बात किसी भी प्रकार से संगत नहीं होती। संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने के लिए, अनुद्गत सूर्य = सूर्य का ताप न पहुँचता हो वैसा क्षेत्र, वहाँ परठने की क्रिया को दुष्ट मानी गई है।
तथा ऐसे अर्थघटन को किसी भी प्राचीन टीका-व्याख्या का आधार नहीं, वैसा भी नहीं है। पढिए - हज़ारों साल पुरानी, संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना को स्वीकारने वाली परंपरा को प्रामाणिक सिद्ध करता हुआ उतना ही प्राचीन पाठ ।