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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य से प्रकाशित निशीथसूत्र अनुवाद :
नोंध :- इस प्रकाशन में 'दिया वा' पाठ का स्वीकार न करने पर भी 'अणुग्गए सूरिए' पद को क्षेत्रपरक माना गया है और उसकी संगति की है।
“जो भिक्षु रात्रि अथवा विकाल वेला में उच्चार-प्रस्रवण के वेग से बाधित होने पर स्वयं के पात्र अथवा दूसरे के पात्र में उच्चारप्रस्रवण का परिष्ठापन कर सूर्योदय से पूर्व त्याग करता (परिष्ठापित करता) है अथवा त्याग करने वाले का अनुमोदन करता है।
- इनका आसेवन करने वालों को लघुमासिक परिहारस्थान प्राप्त होता है।
(विवेचन :-) सामान्यतया भिक्षु स्थंडिलभूमि में जाकर उच्चारप्रस्रवण का विसर्जन करता है। परन्तु रात्रि या विकालवेला में अथवा दिन में भी रोग, स्थानाभाव, श्वापदभय आदि कारणों से स्थंडिलभूमि में जाना संभव न हो तो मात्रक में भी उच्चार-प्रस्रवण का विसर्जन किया जाता है।
प्रस्तुत सूत्र में उस विसर्जित उच्चार-प्रस्रवण का सूर्योदय से पूर्व परिष्ठापन करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। प्रस्तुत सन्दर्भ में 'अणुग्गए सूरिए' पाठ विमर्शनीय है। भाष्य एवं चूर्णि में 'अणुग्गए सूरिए' इस वाक्यांश का सूर्योदय से पूर्व अर्थ ग्रहण करते हुए कहा गया है - इस सूत्र का अधिकार रात्रि में विसर्जन' से है। प्रस्तुत सन्दर्भ में उन्होंने रात्रि में परिष्ठापन से आनेवाले दोषों की भी चर्चा की है।
यदि 'अणुग्गए सूरिए' वाक्यांश का अर्थ 'सूर्योदय से पूर्व' किया जाए तो सूत्र में प्रयुक्त 'दिया वा' पाठ की सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। (यहाँ आश्चर्य की बात यह है कि अपने संस्करण में 'दिया वा' पाठ न होने पर भी ऐसा उल्लेख हुआ है। वह
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