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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य :))रहा।
इस तरह आगमों का एवं प्राचीन परंपराओं का अत्यंत तटस्थतया और सूक्ष्मतया निरीक्षण करने से यह बात अपने आप सिद्ध होती है कि प्रज्ञापनासूत्रकार आदि को, शरीर में से बाहर निकले हुए मल-मूत्रादि अशुचि पदार्थों को संमूर्छिम मनुष्य के उत्पत्तिस्थान के रूप में बताना अभिप्रेत है।
इस तरह, रामलालजी महाराज द्वारा पेश किए गए चारों विचारबिंदु आगम की कसौटी पर से पार उतर सके वैसे नहीं हैं। अतः वे निराधार साबित होते हैं। तदुपरांत, तर्क की कसौटी को भी वे सहन नहीं कर सकते। अन्य अनेक आगमिक साबिति और तर्क हमें उस दिशा की ओर ले जाते हैं कि जहाँ 'शरीर से बाहर निकले हुए मलमूत्र में ही संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति बताने का शास्त्रकारों को अभिप्रेत है' - यह सत्य सदा प्रतिष्ठित रूप में झिलमिला रहा है।
शरीर के बाहर रहे हुए मल आदि में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति का स्वीकार करना वह आगम-परंपरा-तर्क से सिद्ध और प्रतिष्ठित सत्य की पूजा करने समान है - वह निःशंक है। . पन्नवणा का तात्पर्यार्थ : शरीर के बाहर ही संमूर्छिम की उत्पत्ति
'संमूर्छिम मनुष्यों की हमारी कायिक हिल-चाल से विराधना संभवित नहीं' - इस मान्यता की नींव शरीर के भीतर रहे मलादि में भी संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति सतत प्रवर्तमान ही रहती है' - यह मान्यता थी। जव बुनियादी मान्यता ही निराधार बनती है तब उसके आधार पर उत्पन्न हुई दूसरी मान्यता भी स्वतः विध्वस्त और निरस्त होती है।
तथापि रामलालजी महाराज ने जो सबूत पेश किए हैं उनका