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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य
यहाँ हम देख सकते हैं कि जल्ल = शरीर के मैल को भी संमूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्तिस्थान के रूप में बताया है। तथा यह बात उचित भी है, क्योंकि गर्भजमनुष्यसंबंधी अशुचित्व के रूप में उसका भी संग्रह यहाँ आवश्यक है।
भगवती आराधना (गा.४४८) की विजयोदया वृत्ति में स्पष्ट बताया है कि - "चक्रिस्कन्धावारप्रसवोच्चारभूमयः शुक्रसिंहाणकश्लेष्मकर्णदन्तमलानि चाङ्गुलाऽसङ्ख्यातभागमात्रशरीराणां सम्मूर्छिमानां जन्मस्थानानि ।” यहाँ उच्चार = प्रस्रवण की (= मल-मूत्र की) भूमि को = जहाँ मल-मूत्र पड़े रहते हो, इकट्ठे हो वैसी भूमि को, कान-दांत के मैल को भी संमूर्छिम के जन्मस्थान के रूप में बताए हैं। ये सभी शरीर के बाहर रहने वाले हैं। इस तरह प्राचीन परमर्षि शरीरनिर्गत ऐसे ही मल-मूत्रादि को संमूर्छिम मनुष्य के उत्पत्तिस्थान के रूप में मानते आए हैं और वैसा प्रतिपादन करते आए हैं।
कफ, रक्त, उच्चार-प्रस्रवण (= मल-मूत्र) वगैरह चीज़ों को संमूर्छिम मनुष्य के उत्पत्तिस्थान के रूप में बताने के बाद वे जिन स्थानों में इकट्ठे होते हैं वैसे नगर की गटर आदि को भी, अतिरिक्त उल्लेखनीय गिन कर सूत्र में दर्शाया गया है। वह इस बात को सूचित करता है कि नगर की गटर (नाला) वगैरह में मल-मूत्रादि सूख जाए वैसी संभावना नहींवत् होने से, पानी आदि के संसर्ग से सतत आर्द्र रहने से उनमें संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति संभवतः सतत चालु रहती है। आर्द्र मल-मूत्र, गटर वगैरह में लोकस्थिति के अनुसार, कभीकबार संमूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति न हो वैसा भी संभवित है (पन्नवणा - ६/१२३)। परंतु संमूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति जब कभी भी हो तब आर्द्र मल-मूत्रादि में ही होती है और दो घटिका के बाद (देखिए पृष्ठ१२) ही होती है, इतना तो उपर्युक्त विमर्श से निश्चित समझना ही
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