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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य एवं व्यावहारिक रूप में अशुचिस्थान के रूप में सिद्ध करना ही रहा - यही हमारी बात है। सूक्ष्मबुद्धि से यह बात अनुप्रेक्षणीय है।
दश औदारिक अस्वाध्याय के प्रतिपादक पूर्वोक्त ठाणांग सूत्र को एक अन्य दृष्टिकोण से देखें । वहां शोणित, मांस, अस्थि वगैरह को अस्वाध्यायिक = स्वाध्यायप्रतिबंधक बताए हैं। वहाँ शास्त्रकारों ने ऐसा नहीं बताया कि शरीर के बाहर निकले हुए शोणित (=लहू) वगैरह ग्रहण करना या शरीर के भीतर रहे हुए लहू का ग्रहण करना। ऐसे अनुल्लेख मात्र से क्या ऐसा मान लेना उचित होगा कि शरीर के भीतर रहे शोणितादि भी अस्वाध्याय के कारण के रूप में विवक्षित हैं? यहाँ स्पष्टतया शरीर में से बाहर निकले रक्त, मांस, अस्थि वगैरह को ही अस्वाध्यायिक माने गए हैं। अन्यथा तो साधु कदापि स्वाध्याय ही नहीं कर पाएगा।
तो फिर पन्नवणासूत्रकार जब ‘रक्त आदि अशुचिस्थान में संमूर्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं' - वैसा कथन कर रहे हो तब ‘शरीरनिर्गत रक्त या शरीरअनिर्गत रक्त' - ऐसा उल्लेख न होने से “रक्तत्वसाधर्म्य से उभयविध रक्त में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति पन्नवणासूत्रकार को मान्य है' - वैसा मान लेना क्या अनुचित नहीं है? अन्यथा इसी न्याय से, शरीरनिर्गतत्व वगैरह के अनुल्लेख मात्र से, शरीरगत रक्त को भी पूर्वोक्त स्थानांगसूत्रसंदर्भ से स्वाध्याय के प्रति प्रतिबंधक सिद्ध करने वाले व्यक्ति की बोलती रामलालजी महाराज कैसे बंध कर पाएंगे ? अतः अशुचि के रूप में रक्तादि को उद्देश्य कर जब शास्त्रकार किसी बाबत का विधान या निरूपण करते हो तब उन आगमकार महर्षिओं का आशय शरीरबहिर्निर्गत रक्तादि में ही है - वैसा निर्विवाद रूप से प्रामाणिकतया ज्ञात होता है।
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