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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य तथ्य स्पष्ट है कि शरीर के भीतर रहे मलादि अशुचि के रूप में विवक्षित है ही नहीं, किंतु शरीर के बाहर निकले हुए मलादि ही अशुचि के रूप में आगमपरंपरा में सम्मत हैं। अन्यथा सर्वदा अस्वाध्याय की आपत्ति आएगी। परिणामतः, जब मलादि को अशुचिस्थानत्व के रूप में प्रज्ञापना सूत्रकार संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति का स्थान बताते हो तब उनका आशय शरीर से बाहर निकले हुए मलादि को ही संमूर्छिम मनुष्य के उत्पत्तिस्थान के रूप में बताना फलित होता है, न कि शरीर के भीतर रहे हुए मलादि को भी, क्योंकि उनका अशुचितया व्यवहार आगमिक नहीं। वैराग्य की परिभाषा में वैराग्यजनन के लिए कदाचित् शरीर के भीतर रहे मलादि को अशुचि के रूप में दर्शाया हो तो उस कथन को प्रयोजनविशेष से निर्दिष्ट मानना चाहिए। परंतु आगमिक तथ्यों का प्रतिपादन करते वक्त आगमकार महर्षिओं को अशुचिभूत मलादि के रूप में शरीर में से बाहर निकले हुए मलादि ही मान्य हैं। अन्यथा जिनालयादि में जाने से आशातना का प्रसंग भी लगेगा ही। इस बात का स्वीकार मध्यस्थता से करना ही रहा ! 'यदि संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति को अस्वाध्याय के साथ संलग्न करोगे तो शरीर के बाहर निकले हुए अशुचि में तुरंत ही संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, क्योंकि वे अशुचियाँ भी अस्वाध्यायरूप बनती ही है' - ऐसी दलील अत्यंत अतार्किक है। इसका कारण यह है कि अशुचिस्थान के सिद्ध होने मात्र से वहाँ तत्काल संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति होने लगती है - वैसा नियम है ही नहीं। परंतु 'जहाँ संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति होती है वे नियमतः अशुचिस्थान ही होते हैं' - वैसा नियम है। अतः रामलालजी महाराज शरीर के अंदर संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति मानते हो तो उन्हें जीवंत शरीर को शास्त्रीय
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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