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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य 'अथवा' शब्द वाजिब नहीं है । फलतः प्रस्तुत सूत्र का तात्पर्य यह होता है कि “नगर की गटर वगैरह स्वरूप तमाम अशुचिस्थानों में..." इत्यादि। अतः शारीरिक अशुचियाँ-उच्चारादि, अशुचित्व के रूप में ही संमूर्छिम मनुष्य के उत्पत्तिस्थान साबित होते हैं।)
इस बात को समझने के लिए फलपूजा का दृष्टांत सोचें - 'सेब, केले वगैरह फल प्रभु को चढ़ा सकते हैं...' - ऐसे कथन में सेब का सेबत्व के रूप में ग्रहण अभिप्रेत नहीं, किंतु फलत्व के रूप में अभिप्रेत है। सेब फल है, इसलिए यहाँ उसका ग्रहण किया गया है, सेब 'सेब' है इसलिए नहीं। सेब 'सेब' होने के उपरांत में यदि फल न होता तो यहाँ उसका ग्रहण अभिप्रेत न होता।
रमेश, महेश वगैरह ब्राह्मणों को भोजन खिला दो' - इस विधान में भी यही बात प्रतिबिंबित होती है। रमेश 'रमेश' है तदर्थ नहीं किंतु वह ब्राह्मण है अतः उसे यज्ञादि प्रसंग में भोजन खिलाने की बात है। रमेश यदि ब्राह्मण न होता तो उसे खिलाना यहाँ मान्य न होता ।
इसी बात का प्रतिघोष पन्नवणासूत्र में भी सुनाई देता है। ‘मल वगैरह गर्भजमनुष्य संबंधी अशुचिस्थानों में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति होती है' - यह विधान मल वगैरह को मलत्व रूप में नहीं किंतु गर्भजमनुष्यसत्कअशुचिस्थानत्व के रूप में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति के स्थान के रूप में सिद्ध करते हैं। अर्थात् मल ‘मल' है तदर्थ नहीं, किंतु गर्भज मनुष्य का अशुचिस्थान है। अतः वह संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति का स्थान है। परिणामतः, मल ‘अशुचि' हो तभी उसमें संमूर्छिम की उत्पत्ति अभिप्रेत होना निश्चित होता है। उसके पहले नहीं।
ठाणांग सूत्र के संदर्भ से शरीर से बाहर निकली अशुचि ही अस्वाध्याय