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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य आगति ढाई द्वीप के बाहर भी होने से अत्यंत असामंजस्य की आपत्ति आएगी। सहसा अहेतुक योनिविध्वंस वगैरह की अक्लृप्त कल्पना ही डंके की चोट पर सिद्ध करती है कि शरीर के भीतर रहे मल आदि में शास्त्रकारों को संमूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति मान्य नहीं। किंतु संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति शरीर से बाहर निकले हुए मल-मूत्रादि में, एवं उसके प्रतिबंधकीभूत मनुष्यात्मा की अनुपस्थिति में ही संभवित होना मान्य
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उच्चारादि उच्चारत्व रूप में नहीं, अशुचित्वरूप में उत्पत्तिस्थान
रामलालजी अपने लेख के A-3 क्रमांक विचारबिंदु में बताते हैं कि ''आगम में उच्चार (मल) को सम्मूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्तियोग्य योनि कहा गया है, तो शरीर में रहे उच्चार में भी द्वीन्द्रियादि जीवों की तरह सम्मूर्छिम मनुष्य भी उत्पन्न हो सकते हैं - ऐसा सिद्ध होता है।"
यह तर्क वाजिब नहीं । एवं शास्त्रकारों के आशय से विपरीत भी है। पन्नवणासूत्रकार उच्चार को उच्चारत्व रूप में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्तिस्थानरूप योनि नहीं कहना चाहते, किंतु उच्चार को गर्भज मनुष्यसत्कअशुचिस्थानत्वेन संमूर्छिम मनुष्य की योनि कहना उनको अभिप्रेत है । मल, मूत्र, श्लेष्म वगैरह अनेक अशुचिस्थानों के निर्देश के पश्चात् 'सव्वेसु चेव असुइएसु ठाणेसु' - पन्नवणासूत्रकार का यह वचन अशुचिस्थानत्व रूप में ही मल-मूत्र आदि को संमूर्छिम मनुष्य की योनि के रूप में सिद्ध करता है।
(रामलालजी महाराज ने पनवणा सूत्र का अर्थ करते हुए - "नगर की गटरों-मोरियों में अथवा सभी अशुचिस्थानों में" - ऐसा जो बताया है वह वाजिब नहीं, क्योंकि मूलसूत्र में 'सव्वेसु चेव असुइठाणेसु' के पश्चात् 'वा' नहीं लिखा है। अतः अर्थ में बताया हुआ
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