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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य बात भी सिद्ध हो जाती है कि (२) संमूर्छिम मनुष्यों की विराधना हमारी कायिक प्रवृतिओं से संभवित है। प्रस्तुत श्लोकों के द्वारा यह बात स्पष्ट इसलिए हुई क्योंकि यहाँ चक्रवर्ती वगैरह की छावनी में स्थित उच्चार-प्रस्रवणभूमि गृहीत है। प्राचीन काल में मलत्याग के लिए बाहर खुले में ही जाने की प्रवृत्ति थी। सामान्यतया थोड़े मनुष्य जहाँ मलत्याग करते हो वहाँ धूप वगैरह के कारण मल के सूख जाने की शक्यता अधिक है। चक्रवर्ती की छावनी वगैरह में बहुत सारे लोग (९६ क्रोड जैसी विराट संख्या में) मलत्याग के लिए जहाँ जाते हो वहाँ अशुचि का ढेर बढ़ जाने की प्रबल संभावना है। वर्चीगृह(=शौचालय)- सफाई कामदार वगैरह की व्यवस्था से भी अशुचि का ढेर बढेगा। श्लोक में ऐसे स्थान ही निर्दिष्ट हैं जहाँ महान जनसंमर्द हो । परिणामतः अशुचिओं के ढेर की मात्रा उतनी बढने वाली है, कि जिसके शीघ्रतया सूख जाने की शक्यता नहींवत् है। परिणामतः, संमूर्छिम मनुष्य की प्रचुर प्रमाण में उत्पत्ति प्रबल संभवित है। इस तरह, प्रस्तुत में जहाँ दीर्घ काल तक मल वैगरह अशुचिओं के सूख जाने की शक्यता न हो वैसे ही स्थान दर्शा कर यह स्पष्ट किया है कि मल वगैरह अशुचि का शरीर से बाहर निकलना और सूख न जाना - यह संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति के लिए आवश्यक है। यहां ध्यातव्य है कि सामान्य राजा की छावनी में वैसा विशिष्ट जनसमूह हो या न भी हो। अतः भूरिभूभुजां' लिख कर यह अत्यंत स्पष्ट कर दिया है कि पुष्कल जनसंमर्द लेना ही अपेक्षित है। इसके कारण की विचारणा से भी उपर्युक्त फलितार्थ स्पष्ट होता है। श्वेतांबर मूर्तिपूजक संप्रदाय में नवांगी टीकाकार श्रीअभयदेवसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न पंडित मुनिराज श्रीहरिश्चंद्रविजयजी म.सा. द्वारा विरचित प्रश्नपद्धति ग्रंथ में ऐसा उल्लेख मिलता है कि :
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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