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________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य किया गया है कि उससे समस्त स्थानकवासी परंपरा में बुनी हुई संमूर्छिम मनुष्य विषयक यतना का प्रतिघोष सुनाई देता है। तेरापंथी संप्रदाय की ओर से प्रकाशित एवं आचार्य श्रीतुलसी की राहबरी तले अनूदित श्रीनिशीथसूत्र के पुस्तक में भी इस परंपरा का सहजतया उल्लेख किया गया है। ये रहे वे शब्द : “पात्र में विसर्जित उच्चार आदि में जीवोत्पत्ति होने से संयमविराधना..” (नि. उद्देशक३/सू.८० जैन विश्वभारती की ओर से प्रकाशित) दिगंबर परंपरा में, भगवती आराधना नामक प्राचीन ग्रंथ की श्रीविजयोदया व्याख्या में अमुक प्राचीन श्लोक उद्धरण के रूप में दिए गए हैं। उससे दिगंबरों की संमूर्छिम मनुष्य विषयक मान्यता स्पष्ट होती है। वे श्लोक इस प्रकार हैं : "कर्मभूमिषु चक्रास्त्रहलभृद्भरिभूभुजां । स्कन्धावारसमूहेषु प्रस्त्रावोच्चारभूमिषु ।। शुक्र-सिंघाणक-श्लेष्म-कर्णदन्तमलेषु च। अत्यन्ताऽशुचिदेशेषु सद्यःसम्मूर्छनेन ये ॥ भूत्वाऽङ्गुलस्यासंख्येयभागमात्रशरीरकाः ।। आशु नश्यन्त्यपर्याप्तास्ते स्युः सम्मूर्छिमा नराः ॥'(गा.७८१ वृ.) इन श्लोकों में पूर्वोक्त पन्नवणा सूत्र की छांट अत्यंत स्पष्ट ज्ञात होती है। चक्रवर्ती वगैरह राजाओं की छावनी में स्थित प्रचुर प्रमाण के मनुष्य जहाँ उच्चार-प्रस्रवण के लिए जाते हो उस उच्चारादि की भूमि में दीर्घकाल तक उच्चारादि (मल-मूत्रादि) न सूखने के कारण संमूर्च्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति प्रस्तुत श्लोकों में बता कर दो बाबत स्पष्ट की है - (१) शरीर में से निकलने के बाद ही उच्चार-प्रस्रवण में संमूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति मानी गई है। इस मान्यता की सिद्धि होने से यह SHEM205
SR No.022666
Book TitleSamurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijaysuri, Jaysundarsuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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