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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य
उच्चार-प्रस्रवण वगैरह में, शरीर से बाहर निकलने के पश्चात् अंतर्मुहूर्त के बाद (देखिए पृष्ठ-१२) संमूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति होती है। एवं उनकी विराधना से बचने के लिए, अल्पकाल में वे सूख जाए, विपरिणत हो जाए उस तरह उनकी पारिष्ठापनिका आवश्यक है। उस प्रकार का परिष्ठापन, काल के पसार होने के साथ अत्यंत मुश्किलभरा बन रहा है। अत एव उसमें अत्यंत यतनावंत रहने का उपदेश परमात्मा के उस वचन में से हमें मिलता है। . संपूर्ण आगमों की अनुपलब्धि
अर्थ की अपेक्षा परमात्मा द्वारा उपदिष्ट (अत्थागमे) और सूत्र की अपेक्षा गणधर द्वारा गुम्फित (सुत्तागमे) ऐसे आगम, उनके यथोक्त प्रमाण (= नाप-ग्रंथकद) के साथ वर्तमान में अनुपलब्ध हो, तब वर्तमान में उपलब्ध अतिलघुकद के आगमों में स्पष्टतया निर्देश न मिलने मात्र से प्राचीन और अविच्छिन्न परंपरा को आगमअमान्य स्थापित करना हरगिज़ उचित नहीं है। वह भी तब कि जब उस परंपरा की पुष्टि करने वाले साक्षात् एवं परोक्ष अनेक विधान तो आगमों में से मिलते ही हो । संमूर्छिम मनुष्य विषयक परंपरा तो संमूर्छिम मनुष्यों की अहिंसा के पालनार्थ जैनशासन की अपनी महत्त्वपूर्ण प्रथा है। इस प्रथा पर कुठाराघात करना तो असंख्य संमूर्छिम पंचेन्द्रिय मनुष्यों की हिंसा में फलित होता है। पूर्णतया अनुपलब्ध ऐसे आगमों में (= अंगसूत्रों में) संमूर्छिम मनुष्य विषयक जो भी पाठ मिलते हैं उससे कईगुना सविशेष और स्पष्ट उल्लेख विच्छिन्न आगमखंडों मे अवश्य हो सकते हैं।
इस बाबत की साक्षी देने वाला पाठ है, पनवणासूत्र का संमूर्छिम मनुष्य के उत्पत्तिस्थानों का परिचय कराने वाला यह पाठ :__से किं तं मणुस्सा ? मणुस्सा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा - संमुच्छिम