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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य भूमि की खोज भी अनावश्यक साबित होगी।
___ परमात्मा ने स्वयं पारिष्ठापनिका समिति की जो महत्ता प्रस्थापित की है वह हमें बहुत महत्त्वपूर्ण संदेश देती है। अन्य सर्व समिति को छोड़ कर इस समिति को ही उसके उच्चार-प्रस्रवणादि विषय दर्शाने पूर्वक क्यों उल्लिखित की गई? इस प्रयोजन की तलाश तो अनुप्रेक्षा का एक अनूठा विषय बन सकती है।
हाँ, पारिष्ठापनिका समिति में, उच्चारादि के परिष्ठापन के अवसर पर आपात-संलोक आदि युक्त भूमि का वर्जन ... इत्यादि बाबत मुख्यतया शास्त्रों में प्रतिपादित की गई हैं। यह एक हकीक़त होने पर भी यहाँ मुख्यतया यही बात बताने का हमारा आशय है कि आपातसंलोक आदि भूमि का वर्जन ... इत्यादि बाबत विधि स्वरूप है, जैसे कि एषणासमिति में 'गोचरी जाते समय संभ्रम न रखना...' इत्यादि बाबत । परंतु मुख्य प्रयोजन क्या है? तथा उद्वरित = अधिक आहारादि की पारिष्ठापनिका में, शरीर के मैल वगैरह की अपेक्षा अत्यधिक यतनाओं की सावधानी आवश्यक होने पर भी पारिष्ठापनिका समिति का उल्लेख करते वक़्त 'उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल' - इन सबका ही ग्रहण क्यों ? जो शारीरिक मल हैं, जिनका सीधा संमूर्छिम मनुष्य की विराधना के साथ संबंध है, उनका ही ग्रहण क्या सूचित करता है ? उसकी तटस्थ विचारणा आवश्यक है। आगंतुक त्रसद्वीन्द्रिय वगैरह जीवों की विराधना की बात तो आहारादि में भी लागु पड़ती ही है, तथापि उनका ग्रहण न कर के संमूर्छिम मनुष्य की विराधना जिसमें संभवित है सिर्फ वैसी शारीरिक बहिनिःसृत अशुचिओं का ही ग्रहण क्यों ? सूक्ष्म और तात्पर्यग्राही दृष्टि से की गई विचारणा से अंततोगत्वा ठाणांग सूत्रकार का संमूर्छिम मनुष्य की यतना विषयक आशय स्पष्टतया उभर आता है।