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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य
अभिनव मान्यता और सैद्धांतिक मान्यता के बीच की भेदरेखा
सैद्धांतिक परंपरा :
अद्यावधि अविराम चली आ रही सैद्धांतिक परंपरा यह है किः संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति गर्भज मनुष्यों के शरीर में से बाहर निकली हुई शास्त्रनिर्दिष्ट अशुचिओं में अंतर्मुहूर्त पश्चात् होती है। (देखिए पृष्ठ-१२) तथा संमूर्छिम मनुष्यों की विराधना - परितापना वगैरह हमारी कायिक प्रवृत्ति के द्वारा हो सकती है। अत एव उनकी रक्षा हेतु सर्वसावद्यत्यागी श्रमण-श्रमणी भगवंतों को उद्युक्त रहना चाहिए। इस विषयक शतशः यतनाएँ श्रमण-श्रमणीवर्ग में प्रचलित हैं।
श्रीरामलालजी म. की मान्यता :
इस परंपरा के सामने प्रश्नार्थचिह्न उठा कर रामलालजी महाराज की अभिनव मान्यता यह है कि : संमूर्छिम मनुष्यों की हिंसा, परितापना वगैरह का होना हमारी कायिक प्रवृत्ति से संभवित नहीं। इस अभिनव मान्यता की पुष्टि के लिए उन्होंने ओर एक नई बात भी स्वीकृत कर ली कि संमूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति शरीर से बाहर निकले हुए रक्तादि में ही नहीं, अपितु शरीर के भीतर रहे हुए रक्त आदि में भी अविच्छिन्न रूप से चलती ही रहती है। (उनके लेख के लिए देखिए : परिशिष्ट-४)
___ इस तरह सैद्धांतिक और अभिनव दोनों प्रकार की मान्यता की स्पष्टता के पश्चात् अब हम आगम एवं आगमतुल्य ही महत्त्व वाले एवं प्रमाणभूत ऐसे अन्य ग्रंथों के आधार पर इस बाबत पर तंदुरस्त विचारणा में आगे बढ़ें, और इस दोहन से मिला हुआ सत्य का नवनीत अनेक भ्रमणाओं का निरसन कर के सत्यपथ का हमें दिग्दर्शन कराए।